Book Title: Jain Nyaya vidya ka Vikas
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 10
________________ १० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ । दध्युष्ट्रादेरभेदत्वप्रसंगादेकचोदनम् पूर्वपक्ष मविज्ञाय दुषकोपि विदूषकः ॥ सुगतोऽपि मृगो जातो मृगोऽपि सुगतः स्मृतः । तथापि सुगतो वन्द्यो मृगः खाद्यो यथेष्यते । वस्तुबलादेव भेदाभेदव्यवस्थितेः । चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्रमभिधावति ॥ तथा -न्या० वि० ३७२, ३७३, ३७४ । '' " दही और ऊँटको एक बतलाकर दोष देना धर्मकीर्तिका पूर्वपक्ष ( अनेकान्त ) को न समझना है दूषक ( दूषण प्रदर्शक ) होकर भी विदूषक - दूषक नहीं, उपहासके ही पात्र हैं, क्योंकि सुगत भी पूर्व पर्याय में मृग थे और वह मृग भी सुगत हुआ, फिर भी सुगत वंदनीय एवं मृग भक्षणीय कहा गया इस तरह सुगत एवं मृगमें पर्याय भेदसे जिस कार क्रमशः वंदनीय एवं भक्षणीयका भेद तथा एक चित्तसंतानकी अपेक्षासे उनमें अभेदकी व्यवस्था की जाती है, उसी प्रकार वस्तु बल ( प्रतीतिवश ) से सभी पदार्थोंमें भेद और अभेद दोनोंकी व्यवस्था है । अतः किसीको 'दही खा' कहने पर वह ऊँटको खानेके लिए क्यों दौड़ेगा, क्योंकि सत्सामान्यकी अपेक्षासे उनमें अभेद होनेपर भी पर्याय ( पृथक-पृथक प्रत्ययके विषय की अपेक्षासे उनमें स्पष्टतया भेद है। संज्ञा भेद भी है। एकका नाम दही है और दूसरेका नाम ऊँट है, तब जिसे दही खानेको कहा वह दही ही खायेगा, ऊँटको नहीं, क्योंकि दही भक्षणीय है, ऊँट भक्षणीय नहीं । जैसे सुगत वंदनीय एवं मृग भक्षणीय हैं। यही वस्तुव्यवस्था है । भेदाभेद ( अनेकान्त ) तो वस्तुका स्वरूप है । उसका अपलाप नहीं किया जा सकता" । यहाँ अकलंकने धर्मकीर्तिके आक्षेपका शालीन किन्तु उपहास पूर्वक, चुभने वाला करारा उत्तर दिया है । यह विदित है कि बौद्ध परम्परामें आप्तरूपसे मान्य सुगत पूर्व जन्ममें मृग थे, उस समय वे मांस भक्षियोंके भक्ष्य थे, किन्तु जब वही पूर्व पर्यायका मृग मरकर सुगत हुआ, तो वह वंदनीय हो गया । इस प्रकार एक चित्तसंतानकी अपेक्षा उनमें अभेद है । और मृग तथा सुगत इन दो पूर्वापर पर्यायोंकी अपेक्षा से उनमें भेद है । इस प्रकार जगतकी प्रत्येक वस्तु प्रत्यक्षदृष्ट भेदाभेदको लिए हुए है। और यही अनेकान्त है, कोई वस्तु इस अनेकान्तकी अवहेलना नहीं कर सकती । इस तरह अकलंकदेवने विभिन्न वादियों द्वारा स्याद्वाद और अनेकान्तपर किये गये आक्षेपों का सयुक्तिक परिहार किया । नव निर्माण अकलंकदेवका दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य नवनिर्माण है। जैनन्यायके जिन आवश्यक तत्त्वोंका विकास और प्रतिष्ठा अब तक नहीं पायी थी, उसकी उन्होंने प्रतिष्ठा की । इसके हेतु उन्होंने जैनन्यायके निम्न चार महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंकी रचना की— १ - न्यायविनिश्चय ( स्वोपज्ञवृत्ति सहित ), २ - सिद्धिविनिश्चय ( स्वोपज्ञवृत्ति सहित ), ३ - प्रमाण संग्रह ( स्वोपज्ञवृत्ति सहित ), ४-लघीयस्त्रय ( स्वोपज्ञ वृत्ति समन्वित ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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