Book Title: Jain Nyaya ke Samarth Puraskarta Siddhasena Diwakar Author(s): Devendramuni Shastri Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf View full book textPage 4
________________ ४३८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन प्रन्थ ०००००००००००० 000000000000 वर्तन करके बौद्ध प्रमाण शास्त्र को व्यवस्थित रूप प्रदान किया उसी प्रकार सिद्धसेन दिवाकर ने भी पूर्व परम्परा का सर्वथा अनुकरण न करके अपनी स्वतन्त्र बुद्धि से न्यायावतार की रचना की। उन्होंने जैन दृष्टि को अपने सामने रखते हुए भी लक्षण-प्रणयन में दिग्नाग के ग्रन्थों का पर्याप्त मात्रा में उपयोग किया और स्वयं सिद्धसेन के लक्षणों का उपयोग परवर्ती जैनाचार्यों ने अत्यधिक मात्रा में किया है। आगम साहित्य में चार प्रमाणों का वर्णन है ।२२ आचार्य उमास्वाति ने प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो प्रमाण माने और उन्हीं में पांच ज्ञानों को विभक्त किया । आचार्य सिद्धसेन ने भी प्रमाण के दो ही भेद माने हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष, किन्तु उन्होंने प्रमाण का निरूपण करते समय जैन परम्परा सम्मत पाँच ज्ञानों को प्रमुखता प्रदान नहीं की है, लोकसम्मत प्रमाणों को मुख्यता दी है। उन्होंने प्रत्यक्ष की व्याख्या में लौकिक और लोकोत्तर दोनों प्रत्यक्षों का समावेश किया है और परोक्ष प्रमाण में अनुमान और आगम का । इस प्रकार सिद्धसेन ने सांख्य और प्राचीन बौद्धों का अनुकरण करके प्रत्यक्ष अनुमान और आगम का वर्णन किया है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ही प्रथम जैन दार्शनिक हैं जिन्होंने न्यायावतार जैसी लघुकृति में प्रमाण, प्रमाता, प्रमेय और प्रमिति इन चार तत्त्वों की जैन दर्शन सम्मत व्याख्या करने का सफल प्रयास किया। उन्होंने प्रमाण और उनके भेद-प्रभेदों का लक्षण किया है। अनुमान के सम्बन्ध में उनके हेत्वादि सभी अंग-प्रत्यंगों की संक्षेप में मार्मिक चर्चा की है। उन्होंने केवल प्रमाण निरूपण की ही चर्चा नहीं की किन्तु नयों का लक्षण और विषय बताकर जैन न्यायशास्त्र की ओर मनीषी दार्शनिकों का ध्यान आकर्षित किया। प्रस्तुत ग्रन्थ में स्वमतानुसार न्यायशास्त्रोपयोगी प्रमाणादि पदार्थों की व्याख्या करके ही आचार्य सिद्धसेन सन्तुष्ट नहीं हुए किन्तु उन्होंने संक्षेप में परमत का निराकरण भी किया है। लक्षण निर्माण में दिग्नाग जैसे बौद्धों का यत्र-तत्र अनुकरण करके भी उन्हीं के 'सर्वमालम्बने भ्रान्तम्' और पक्षाप्रयोग के सिद्धान्तों का युक्ति-पुरस्सर खण्डन भी किया। बौद्धों ने जो हेतु-लक्षण किया था, उसके स्थान में अन्तर्व्याप्ति के बौद्ध सिद्धान्त से ही फलित होने वाला ‘अन्यथा नुपपत्तिरूप' हेतु लक्षण अपनाया । वह आज भी जैनाचार्यों द्वारा प्रमाणभूत माना जाता है ।२३ इस प्रकार हम देखते हैं कि विक्रम की पांचवीं शताब्दी के ज्योतिर्धर आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने साहित्यिक क्षेत्र में जो मौलिकता दी है, वह महान है । वे जैन न्याय के प्रथम पुरस्कर्ता हैं । १ दर्शन और चिन्तन, पृ० २७०-पंडित सुखलाल जी (हिन्दी) २ वही, पृ० २६६ ३ (क) अनुयोग द्वार सूत्र १५६ (ख) स्थानाङ्ग सूत्र ७१५५२ ४ तित्थयरवयणसंगह-विसेसपत्थारमूलवागरणी। दव्वदिओ य पज्जवणओ य सेसा वियप्पासि ॥-सन्मति तर्क प्रकरण ११३ ५ दव्वं पज्जवविउयं दवविउत्ता य पज्जवा णत्थि । उप्पादव्वयाद्विइ-भंगा, हंदि दव्वलक्खणं एयं ।।--सन्मति तर्क १११२ जे संतवायदोसे सक्कोलूया भणंति संखाणं । संखा य असव्वाए तेसिं सव्वे वि ते सच्चा ।। ते उ भयणोवणिया सम्मदंसणमणुत्तरं होति । जं भवदुक्खविमोक्खं दो वि न पूरेंति पाडिक्कं ।।-सन्मति तर्क प्रकरण ३।५०।५१ ७ दव्वं खित्तं कालं भावं पज्जाय-देस-संजोगे। भेदं च पडुच्च समा भावाणं पण्णवणयज्जा ।।-सन्मति तर्क ३।६० ८ दुविहो धम्मावाओ अहेउवाओ य हेउवाओ य । तत्थ उ अहेउवाओ भवियाऽभवियादओ भावा ।। DOBRO ५० - FOR PHOBAR -- - Lansducationinten SarrivatePage Navigation
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