Book Title: Jain Nyaya ka Punarviskshan
Author(s): Sangamlal Pandey
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 3
________________ चतुर्थ खण्ड : जैनदर्शन-चिन्तन के विविध आयाम २४६ . + + - ++++++++ + ++ + + + + + ++ + + ++ ++ + ++++ +++ + + + ++ ++ ++ ++ ++++ + ++++ + ++ + ++ + + ++ + ++ ++++ + ++ ++ जैन तर्कशास्त्र के स्वरूप के बारे में तो विद्याभूषण अत्यन्त अस्पष्ट तथा भ्रामक कथन करते हैं। वे कहते हैं-- "जैनियों के द्वारा मध्ययुगीन तर्कशास्त्र पर लिखे गये ग्रन्थ जैन तर्कशास्त्र हैं।"७ परन्तु जैनियों ने बौद्ध तर्कशास्त्र तथा हिन्दू तर्कशास्त्र पर भी ग्रन्थ लिखे हैं। क्या ये ग्रन्थ जैन तर्कशास्त्र के अन्तर्गत आते हैं ? स्पष्ट है कि विद्याभूषण ने जैन तर्कशास्त्र की जो परिभाषा दी है उसके अन्दर ये ग्रन्थ भी जैन तर्कशास्त्र के अन्तर्गत हैं। किन्तु सामान्यतः इन्हें जैन तर्कशास्त्र के अन्तर्गत नहीं माना जा सकता है। स्पष्ट जानकारी के लिए यहाँ यह निर्देश करना आवश्यक है कि मल्लवादी ने धर्मकीति के न्यायबिन्दु पर टीका लिखने वाले धर्मोत्तर की टीका पर एक टिप्पण लिखा है, कल्याणचन्द ने धर्मकीर्ति के प्रमाणवातिक पर एक टीका लिखी है, और हरिभद्र सूरि ने दिग्नाग के शिष्य शंकर स्वामी के न्याय-प्रवेश पर एक टीका लिखी है तथा श्रीचन्द ने उस पर एक टिप्पण लिखा है। इस प्रकार कुछ जैनियों ने बौद्धों के तर्कशास्त्र के ऊपर ग्रन्थ लिखे हैं। इसी प्रकार कुछ जैनियों ने हिन्दू तर्कशास्त्र पर भी ग्रन्थ लिखे हैं। उदाहरण के लिए, राजशेखर सूरि ने श्रीधर की न्यायकन्दली पर पंजिका नामक एक टीका लिखी है। यही नहीं, हेमचन्द्र सूरि की प्रमाण मीमांसा से पता चलता है कि वे आचार्य वात्स्यायन के अनुसार न्याय का विषय-क्षेत्र, उद्देश, लक्षण तथा परीक्षा मानते हैं। फिर डा० दरबारीलाल जैन कोठिया ने दिखलाया है कि दिगम्बर परम्परा के ताकिकों ने अपने तर्क-ग्रन्थों में न्याय और वैशेषिक परम्परा के पंचावयवों पर ही चिन्तन किया है, क्योंकि वे ही सबसे अधिक लोक प्रसिद्ध, चचित और सामान्य थे। फिर जिनेश्वर सूरि ने प्रमालक्ष्यकारिका और उस पर स्वोपज्ञवृत्ति लिखकर सिद्ध किया है कि पहले श्वेताम्बर परम्परा में प्रमाणशास्त्र नहीं था और उन्होंने अपना ग्रन्थ लिखकर इस परम्परा में प्रमाणशास्त्र का शुभारम्भ किया है। इन सब तथ्यों से सिद्ध है कि जैन न्याय प्राचीन हिन्दू तथा मध्ययुगीन बौद्ध न्याय से स्वतन्त्र नहीं है। फिर हिन्दू तथा बौद्ध न्यायों का तुलनात्मक विश्लेषण करने पर पता चलता है कि जैनाचार्यों ने प्रायः बौद्ध न्याय का खण्डन किया है और हिन्दू न्याय का समर्थन किया है । अतएव यह निष्कर्ष सरलता से निकाला जा सकता है कि सामान्यतः जैन न्याय प्राचीन हिन्दू न्याय के ही अन्तर्गत है और प्राचीन हिन्दू न्याय की भूमिका में ही जैनियों ने कुछ अपने तार्किक सिद्धान्तों को विकसित किया है । परन्तु उनका मौलिक योगदान इतना नहीं है कि हम उनके आधार पर जैन-न्याय की कल्पना प्राचीन हिन्दू-न्याय से स्वतन्त्र या पृथक् करके कर सकें। एक बात और है। जिस प्रकार गौतम का न्यायसूत्र प्राचीन हिन्दू न्याय का मूल ग्रन्थ है, गंगेश का तत्त्वचिन्तामणि आधुनिक हिन्दू न्याय का मूल ग्रन्थ है और धर्मकीति के न्यायबिन्दु तथा प्रमाणवातिक बौद्ध न्याय के मूल ग्रन्थ हैं उस प्रकार जैन न्याय का कोई मूल ग्रन्थ नहीं है। कुछ जैनाचार्यों के लिये सन्मतितर्क और कुछ के लिये न्यायावतार मूल ग्रन्थ हैं, तो कुछ के लिये माणिक्यनन्दि का परीक्षामुख और कुछ के लिये अकलंक के आप्तमीमांसा और न्याय-विनिश्चय । स्वयं अकलंक समन्तभद्र की परम्परा में आते हैं। अतएव समन्तभद्र, अकलंक, विद्यानन्द, वसुनन्दि, अनन्तवीर्य तथा वादिराज एक परम्परा में हैं जिन्हें हम समन्तभद्र-परम्परा कह सकते हैं, क्योंकि इन सभी लोगों ने समन्तभद्र की परम्परा में आने वाले अकलंक के ग्रन्थों पर भाष्य लिखे हैं। इसी प्रकार माणिक्यनन्दि की परम्परा में प्रभाचन्द्र, अनन्तवीर्य, चारुकीति, अजितसेन तथा शान्तिषेण आते हैं। फिर सन्मतिकार सिद्धसेन दिवाकर की परम्परा है जिसमें सुमति, मल्लवादी और अभयदेवसूरि आते हैं, तथा न्यायावतारकार सिद्धसेन दिवाकर की परम्परा है जिसमें सिद्धर्षि, शान्तिसूरि और देवभद्र आते हैं । देवसूरि ने अपनी पृथक् परम्परा बनाने का प्रयास किया है जिसमें रत्नप्रभसूरि, राजशेखर और ज्ञानचन्द्र आते हैं। इन परम्पराओं से हटकर कालिकाल-सर्वज्ञ हेमचन्द्र तथा यशोविजय जैसे स्वतन्त्र विचारक हैं। इन सभी परम्पराओं की समालोचना से स्पष्ट हो जाता है कि कई जैनियों ने न्यायशास्त्र में एक मूल ग्रन्थ लिखने का प्रयास किया। किन्तु कोई ऐसा मूल ग्रन्थ स्थिर नहीं हुआ जिसको लेकर सभी जैन तर्कविद् अपने-अपने चिन्तन का विकास करते । अतः स्पष्ट है कि जैनियों ने तर्कशास्त्र की कुछ समस्याओं पर ही अधिक चिन्तन किया है और सम्पूर्ण तर्कशास्त्र के निकाय पर उनका कोई अपना अभिमत नहीं है। सामान्यतः तर्कशास्त्र के क्षेत्र में वे गौतमीय न्याय के ही अनुयायी हैं । अतः विद्याभूषण ने जैन न्याय को गौतमीय न्याय से जो पृथक् किया है वह तर्कतः सही नहीं है और उससे जैन न्याय के स्वरूप को समझा नहीं जा सकता है। जैन-दर्शन में मुख्यतः सन्मतिकार सिद्धसेन दिवाकर, न्यायावतारकार सिद्धसेन, अकलंक, माणिक्यनन्दि, देवसूरि तथा हेमचन्द्र तर्कशास्त्र के मूल ग्रन्थ लिखने वाले हैं । सन्मतिकार सिद्धसेन दिवाकर को अभयदेवसूरि, अकलंक को विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि को प्रभाचन्द्र, देवसूरि को रत्नप्रभसूरि तथा हेमचन्द्र को मल्लिषेण जैसे सुयोग्य और विद्वान् भाष्यकार मिल गये जिसके कारण इनके ग्रन्थों का आदर जैन-दर्शन में विशेष हो गया। इस प्रकार यद्यपि इन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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