Book Title: Jain Murti Shastri Author(s): Krishnadatta Bajpai Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 2
________________ से लेकर ईसवी बारहवीं शती तक के दीर्घकाल में मथुरा में जैन धर्म का विकास होता रहा । यहाँ के चित्तीदार लाल बलुए पत्थर की बनी हुई कई हजार जैन कलाकृतियाँ अब तक मथुरा और उसके आसपास के जिलों से प्राप्त हो चुकी हैं। उनमें तीर्थंकर आदि प्रतिमाओं के अतिरिक्त चौकोर आयागपट्ट विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं उन पर प्रायः बीच में तीर्थकर मूर्ति तथा उसके चारों ओर विविध प्रकार के मनोहर अलंकरण मिलते हैं । स्वस्तिक, नन्दयावर्त, वर्धमानक्य, श्रीवत्स, भद्रासन, दर्पण, कलश और मीन युगल - इन अष्टमंगल द्रव्यों का आयागपट्टों पर सुन्दरता के साथ चित्रण किया गया है । एक आयागपट्ट पर क्षाठ दिवकुमारियाँ एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए आकर्षक ढंग से मंडल नृत्य में संलग्न दिखाई गई हैं । मण्डल या 'चक्रवाल' अभिनय का उल्लेख 'रायपलेनिय सूत्र' नामक जैन ग्रंथ में भी मिलता है। एक दूसरे आयागपट्टे पर तोरण द्वार तथा वेदिका का अत्यन्त सुन्दर अंकन है। वास्तव में ये आयागपट्ट प्राचीन जैन कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इनमें से अधिकांश अभिलिखित हैं, जिन पर ब्राह्मी लिपि में लगभग ई. पू. एक सौ से लेकर ईसवी प्रथम शती के मध्य तक के लेख हैं । मथुरा की जैन कला का प्रभाव मध्यप्रदेश में विदिशा, तुमैन आदि स्थानों की कला पर पड़ा । पश्चिमी भारत, मध्य भारत तथा दक्षिण में पर्वतों को काटकर जैन देवालय बनाने की परंपरा दीर्घकाल तक मिलती है। विदिशा के समीप उदयगिरि की पहाड़ी में दो जैन गुफाएं हैं। वहाँ संख्या एक की गुफा में गुप्तकालीन जैन मन्दिर के अवशेष उपलब्ध हैं । उदयगिरि की संख्या 20 वाली गुफा भी जैन मंदिर है । उसमें गुप्त सम्राट कुमारगुप्त प्रथम के समय में निर्मित कलापूर्ण तीर्थ कर प्रतिमा मिली है । जैन मंदिर स्थापत्य का दूसरा रूप भूमिज मन्दिरों में मिलता है। इन मंदिरों का निर्माण प्रायः समतल Jain Education International भूमि पर पत्थर और ईंटों द्वारा किया जाता था । उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, बंगाल और मध्यप्रदेश में समतल भूमि पर बनाए गए जैन मंदिरों की संख्या बहुत बड़ी है । कभी-कभी ये मंदिर जैन स्तूपों के साथ बनाए जाते थे । जैन स्तूपों के संबंध में प्रचुर साहित्यिक तथा अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध हैं। उनसे ज्ञात होता है अनेक प्राचीन स्थलों पर उनका निर्माण हुआ । मथुरा, कौशांबी आदि कई स्थानों में प्राचीन जैन स्तूपों के भी अवशेष मिले हैं। उनसे यह बात स्पष्ट है कि इन स्तूपों का निर्माण ईसव स्तूपों का निर्माण ईसवी पूर्व दूसरी शती से व्यवस्थित रूप में होने लगा था। प्रारंभिक स्तूप अर्धवृत्ताकार होते थे । उनके चारों ओर पत्थर का बाड़ा बनाया जाता था । उसे 'वेदिका' कहते थे । वेदिका के स्तंभों पर आकर्षक मुद्राओं में स्त्रियों की मूर्तियों को विशेष रूप से अंकित करना प्रशस्त माना जाता था । गुप्त काल से जैन स्तूपों का आकार लंबोतरा होता गया । बौद्ध स्तूपों की तरह जैन स्तूप भी परवर्ती काल में अधिक ऊंचे आकार के बनाए जाने लगे । मध्य काल में जैन मंदिरों का निर्माण व्यापक रूप में होने लगा। भारत के सभी भागों में विविध प्रतिमाओं से अलंकृत जैन मंदिरों का निर्माण हुआ । इस कार्य में विभिन्न राजवंशों के अतिरिक्त व्यापारी वर्ग तथा जन साधारण ने भी प्रभूत योग दिया । चन्देलों के समय में खजुराहो में निर्मित जैन मंदिर प्रसिद्ध हैं। इन मंदिरों के बहिर्भाग खजुराहो की विशिष्ट शैली में उकेरे गए हैं। मंदिरों के बाहरी भागी पर समानांतर अलंकरण पट्टिकाएं उत्खचित हैं। उनमें देवी-देवताओं तथा मानव और प्रकृतिजगत को अत्यन्त सजीवता के साथ आलेखित किया गया है। खजुराहो के जैन मंदिरों में पाश्र्वनाथ मंदिर अत्यधिक विशाल है। उसकी ऊंचाई 68 फुट है । मंदिर के भीतर का भाग १६६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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