Book Title: Jain Mantra Yoga Author(s): Karandin Sethiya Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf View full book textPage 1
________________ USUAS. 05. 05.95. ANANDSC000 1065 0:00:00 Saro अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर १४९ :०० संदर्भित ग्रन्थों की अकारादि क्रम से तालिका । 00000 600.00.0 Fa Jo:00:00 १. अभिधान राजेन्द्र कोश २. अन्तकृद्दशांग ३. आचारांग सूत्र ४. आवश्यक चूर्णि ५. आवश्यक सूत्र ६. उपासकाचार ७. उत्तराध्ययन ८. जैन आचार ९. जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा १०. तत्त्वार्थ सूत्र ११. दशवैकालिक सूत्र १२. दर्शनसार १३. निशीथ भाष्य १४. भगवती आराधना १५. भगवती सूत्र १६. मूलाचार १७. सागार धर्मामृत १८. स्थानांग १९. श्रावक धर्म दर्शन DADODORE जैन मंत्र योग -श्री करणीदान सेठिया ___ दो तरह के कर्म होते हैं-शुभ व अशुभ। भोगना दोनों को } भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत हो जाते हैं। दो तरह के कर्म होते हैं। पड़ता है। जैसा कर्म उपार्जन करेंगे वैसा ही फल भोगेंगे। कर्म | शुभ व अशुभ यानि पुण्य के व पाप के। यह सत्य है कि पुण्य का पौद्गलिक है। जो कर्म हम भोगते हैं वे चतुःस्पर्शी हैं। ये अदृश्य । फल पुण्य और पाप का फल पाप होगा। पर कभी-कभी उल्टा भी हैं-ये देखे नहीं जा सकते। क्योंकि ये सूक्ष्म है। कर्म पुद्गलों का हो जाता है जैसे-है तो पुण्य-परन्तु फल भोगेंगे पाप का, है पाप सम्बन्ध सूक्ष्म शरीर से है, स्थूल शरीर से नहीं है। जब आत्मा स्थूल और फल मिल जावेगा पुण्य का। यह संभव है कोई आश्चर्य नहीं शरीर को छोड़कर निकलती है तो उसके साथ दो शरीर और रहते है ऐसा होता है। जाति परिवर्तन के द्वारा यह संभव है। पुण्य के हैं। सूक्ष्म व अति सूक्ष्म-यानि तैजस् तेजोमय पुद्गलों का और कर्म परमाणु संग्रह से पुण्य का बंध हुआ और ऐसा कोई कार्मण यानि कर्मपुद्गलों का। तैजस् शरीर का तो फोटो भी लिया । पुरुषार्थ हुआ कि उस संग्रह का जात्यंतर हो गया। थे तो पुण्य के जा सकता है-कार्मण शरीर का नहीं। जब तक ये कर्मपुद्गल पर प्रमाणु पर बन गए पाप के परमाणु। इसी तरह पाप का बंध आत्मा के साथ जुड़े रहेंगे, आत्मा मुक्त नहीं होगी। हुआ इसमें सारे परमाणु संग्रह पाप से जुड़े हुए थे किन्तु ऐसा तब प्रश्न आता है कि इनका आत्मा के साथ संबंध होता कैसे पुरुषार्थ हुआ-ऐसी साधना की गई कि उस संग्रह का जात्यान्तर हो है ? वासना, ज्ञान, संस्कार व स्मृति से तो इनका कोई सम्बन्ध है गया। इसी तरह जो सुख देने वाले परमाणु थे वे दुःख देने वाले नहीं। इनका सम्बन्ध है केवल राग और द्वेष से। इन दो स्थानों से बन गए और जो दुःख देने वाले परमाणु थे वे सुख देने वाले बन ही आत्मा के साथ इनका सम्बन्ध होता है और फिर कभी न | गए। कौन जानता है कि कौन से कर्मपुद्गल निकाचित हैं और कभी इनको भोगना पड़ता है। जिस तरह के बन्ध हम करेंगे उसी कौन से दलिक। इसीलिए महावीर कहते हैं कि पुरुषार्थ करो। कर्म तरह का फल भोगेंगे। जब उनका विपाक हो जाता है तब उनकी करते रहो। शक्ति क्षीण हो जाती है और वे हट जाते हैं-विसर्जित हो कहने का तात्पर्य है कि सब कुछ हमारे हाथ में है-जरूरत है जाते हैं। जब उनका उदय होता है तब उनके आंतरिक कारणों पुरुषार्थ की। निमित्त, माध्यम चाहे जिसे बना लें। वह हमारे चिंतन को खोजने का, उनको हटाने का प्रश्न आता है और उनके पर निर्भर है। दो साल बाद आने वाली बीमारी को, रोग को 60030000000000000 Oohoo060000-00-00 0 0 0.00 0 bo 06:050 200a090SAR ORGRO COOOOOO7034Page Navigation
1 2 3