Book Title: Jain Mantra Sadhna Paddhati Author(s): Rudradev Tripathi Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 6
________________ यहाँ भी जो लिखा गया है, वह सूचनमात्र है। ऐसी और भी विधियाँ देश, काल, सम्प्रदाय आदि के भेद से हैं, जिनका उल्लेख विस्तारभय से नहीं दिया जा रहा है। देवता-सान्निध्य एवं पूजा प्रकार - साधना-पद्धति के उपर्युक्त अंगों के पश्चात् 'देवता-सांनिध्य' का क्रम आता है। इसके लिये प्रतिमा, यन्त्र, यन्त्रपट का उपयोग करते हैं। स्थिर प्रतिमा के अतिरिक्त यन्त्र और पट आदि पर 'वासक्षेप' करना, तत्पश्चात् आवृत यन्त्र का 'पटोद्घाटन' करके उसमें विराजमान सेव्य-सेवक, देव-देवियों को चैतन्यमय बनाकर जाग्रत करने के 'सुरभिमुद्रा' द्वारा 'अमृतीकरण' होता है। तब ध्यान और नमस्कार करके पूजा विधि की जाती है। पूजा-विधि - में -'गुरुस्मरण, गणाधिपति-पूजा, सड्कल्प, रक्षा-विधान (जिसमें एक छोटे से वस्त्र में सरसों रखकर हाथ की कलाई पर राखी के रूप में बाँधा जाता है), पीठस्पर्शन, यन्त्रस्पर्शन, स्तोत्रपाठ द्वारा पुष्पाञ्जलि होती है जिसे 'पूर्वसेवा' भी कहते हैं। यन्त्र पूजन के प्रारम्भ में 'प्राणशुद्धि' प्राणायाम करके यन्त्र में आये हुए स्थानों में पूजा 'उत्तरसेवा' होती है। उदाहरणार्थ 'ऋषिमण्डल यन्त्र' की पूजा में निम्नलिखित विधि का स्परूप ज्ञातव्य हैं -"स्वस्ति वाचन 24 तीर्थकरनाम, त्रैलोक्यवर्ती जिनबिम्ब और पञ्चपरमेष्ठी स्मरणरूप, मङ्गलाचरण, आवाहनादि 6 मुद्रा दर्शन, तीर्थकरपूजा एवं प्रार्थना, 33 कूटाक्षर-पूजन (कादि-क्षान्त संयुक्त वर्णपूजा), नवग्रहपूजन, प्रधान अधिष्ठायकपूजा, दश दिक्पालपूजा, अहंदाद्यष्ट पदपूजन, चतुर्निकायगत देव देवी तथा लब्धि प्राप्त महर्षिपूजन, चतुर्विंशतिदेवी पूजन, 56 वकार (जलबीज) पूजन, के विधान विशिष्ट हैं। इसके पश्चात् (चैत्यवन्दन, ध्यान, आरती आदि होते हैं। मन्त्र-साधना के लिये ‘यन्त्र' का आधार महत्वपूर्ण माना गया है। यत्र को देवता का शरीर भी कहा गया है। अतः उपर्युक्त पद्धति का ज्ञान तथा विधान करना चाहिये। सूरि-मन्त्र आदि के कतिपय ऐसे भी विधान हैं, जिनकी पद्धति अधिकारी आचार्य ही जानते हैं। मन्त्रशास्त्र की अपनी मर्यादाएँ होती हैं तदनुसार पद्धतियों में भी न्यूनाधिकता आती है। उपचार द्रव्य, आसन, माला, समय, दिशा, यन्त्र आदि के बारे में विद्यावाद, ज्ञानार्णव, विविध कल्पग्रन्थ, निर्वाणकलिका' आदि ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है। जैनधर्मानुयायियों में दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी आदि शाखाभेद भी प्रवर्तित हैं, अतः इनके कुछ विशिष्ट आचार भी मन्त्रानुष्ठान-पद्धतियों में तरतमता उपस्थित करती है। आचार्य, उपाध्याय और साधुओं की साधना-पद्धति और श्रमणों द्वारा की जाने वाली पद्धतियों में भी अन्तर है, जिसका कारण साध्वाचार तथा श्रमणाचार के नियम हैं। विविधाः पद्धतीः श्रित्वा मन्त्र-साधना-तत्पराः। लक्ष्यमेकं साधयन्ति ततः साध्यं स्वनिष्ठया॥ गुरौ मन्त्रे तथा देवे श्रद्धां बद्धवा दृढं हृदि। मन्त्र-साधन-संसत्ता सिद्धिं विन्दन्ति निश्चितम्॥ वर्तते राजमार्गोऽयं साधनाया अनुत्तमः। आत्कल्याण-संसिद्धये यतनीयम हर्निशम् ॥(रुद्रस्य) * * * * * (109) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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