Book Title: Jain Karm Siddhant aur Vigyan Parasparik Abhigam
Author(s): Jagdishrai Jain
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 3
________________ ३२८ ] [ कर्म सिद्धान्त कर्म कितने समय तक आत्मा के साथ चिपटा रहे और किस प्रकार का तीव्र, मन्द या मध्यम फल प्रदान करे, यह जीव के कषाय भाव पर निर्भर है । अभिप्राय यह है कि यदि कषाय तीव्र है तो कर्म की स्थिति लम्बी होगी और विपाक भी तीव्र होगा। तभी तो अनन्तानुबन्धी कषाय को नरक का कारण माना जाता है । अतः कषाय की तीव्रता और मन्दता के कारण स्थिति और अनुभाग बन्ध की न्यूनाधिकता समझनी चाहिए । अरिहन्त भगवान् वीतरागता के धारक कषायों से सर्व प्रकार से प्रतीत होते हैं । अतः उन्हें स्थिति और अनुभाग बन्ध होते ही नहीं हैं । योग के निमित्त से कर्म तो आते हैं परन्तु कषाय न होने के कारण उनकी निर्जरा होती रहती है । " सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते स बन्धः" अर्थात् संक्षेप में कषाय ही कर्म बन्ध के मूल कारण हैं । कर्म का फल अमोघ है- अनिवार्य है अर्थात् किये हुए कर्म विपाक होने पर तो अवश्य ही भोगने पड़ते हैं । यह शाश्वत सत्य है । तभी तो किसी ने कहा है जरा कर्म देख कर करिए, इन कर्मों की बहुत बुरी मार है । नहीं बचा सकेगा परमात्मा, फिर औौरों का क्या एतबार है ।। वैज्ञानिक लीचैटलीयर का सिद्धान्त है कि प्रत्येक तन्त्र या संस्थान अपनी साम्यस्थिति से असाम्यस्थिति में यदि चली जाती है तो भी वह अपनी पूर्व साम्यस्थिति में आने का प्रयास करती है । अर्थात् आत्मा के द्वारा किये कर्मानुसार आत्मा पर कर्मवर्गणा का आवरण चढ़ेगा तो भी कर्म विपाक उचित समयानुसार आत्मा के अनन्त वीर्य या तपस्या द्वारा जीव किये हुए कर्मों की निर्जरा भी करेगा, तभी तो साम्यस्थिति को पुनः प्राप्त कर सकेगा । इससे श्रमण भगवान् महावीर के इस कथन की पुष्टि हो जाती है कि सभी भव्य आत्माएँ. नवीन कर्मों के आगमन का निरोध कर और पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा कर मोक्ष में पहुँच जाएँगी। जैन दर्शन आत्मा में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त शक्ति ( बल-वीर्य) इत्यादि गुण मानता है जिनको कर्म-प्रकृतियों ने दबा दिया है । निश्चयनय से विचार करें तो प्रत्येक आत्मा शुद्ध रूप में सिद्ध स्वरूप है । कहा भी है सिद्धा जैसा जीव है, जीव कर्म मैल का अंतरा, बुभै Jain Educationa International सोई सिद्ध होय । बिरला कोय | आत्मा में अनन्त शक्ति, बल, वीर्यं अर्थात् पुरुषार्थ विद्यमान है । जो मनुष्य अपने उद्देश्य की प्राप्ति में अनेक विघ्न व बाधाओं के उपस्थित होने पर भी प्रयत्नशील रहते हैं, अन्त में उन पुरुषार्थी मनुष्यों के मनोरथ सफल भी हो जाते हैं । तभी तो कर्मयोग अर्थात् पुरुषार्थ को प्रगति का मूल कहा है । भगवान् महावीर ने मानव जाति को यह महान् सन्देश दिया है कि मानव तेरा स्वयं का For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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