Book Title: Jain Karm Siddhant Tulnatmaka Vivechan
Author(s): Rammurti Tripathi
Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf

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Page 2
________________ प्रकार आत्मा में एकत्र योग, कषाय तथा योग्य पुद्गलों का भी जो परिणाम होता है, वही 'कर्म' है / कषायवश काय, वाक्, मनःप्रदेश में आत्म परिस्पन्द होना है और इसी परिस्पन्दवश योग्य पुद्गल खिच आते हैं / इस प्रकार कर्म से आत्मा का बंध या संबंध होता है और संबंध होने से विकृति या गुण-प्रच्युति होती है / प्रवचनसार के टीकाकार अमृतचन्द्र सूरि का कहना है आत्मा द्वारा प्राप्य होने से क्रिया को कर्म कहते हैं। उस क्रिया के निमित्त से परिणाम विशेष को प्राप्त होने वाले पुद्गल को कर्म कहा जाता है / जिन भावों के द्वारा पुद्गल आकृष्ट होकर जीव से संबद्ध होते हैं, वे भाव कर्म कहलाते हैं और आत्मा में विकृति उत्पन्न करने वाले पुद्गल पिण्ड को द्रव्य कर्म कहा जाता है। पंचाध्यायी में तो यह भी बताया गया है कि आत्मा में एक वैभाविक शक्ति है जो पुद्गलपुञ्ज के निमित्त को पा आत्मा में विकृति उत्पन्न करती है। यह विकृति कर्म और आत्मा के संबंध से उत्पन्न होने वाली एक अन्य ही आगन्तुक अवस्था है / इस प्रकार आत्मा शरीररूपी कांवर में कर्मरूपी भार का निरन्तर बहन करता रहता है। इसी से राहत पाना है-आत्मा को निरवृत्त करना है। आत्मा से कर्म का संबंध ही "बन्ध" का कारण बनता है। यह कर्म या तन्मलक बंध चार प्रकार का होता है-प्रकृति स्थिति, अनुभव या अनुभाग और प्रदेश / कर्म या बंध का स्वभाव ही है-आत्मा की स्वभावगत विशेषताओं का आवरण करना / स्थिति का अर्थ है-अपने स्वभाव से अच्युति / स्वभाव का तारतम्य अनुभव है और "इयत्ता" प्रदेश। स्वभाव की दृष्टि से कर्म आठ प्रकार के कहे गए हैं-- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र तथा अन्तराय / इनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय तथा अन्तराय को घातिया कर्म कहते हैं। क्योंकि ये आत्म गुण-ज्ञान, दर्शनादि का घात करते हैं। अवशिष्ट चार अघातिया हैं / जीवन्मुक्त के शरीर से ये संबद्ध रह कर भी उसके आत्मगत गुणों का घात नहीं करते / हां, विदेह मुक्त सिद्ध में अधातिया कर्मों की भी स्थिति नहीं रहती। जैन कर्म सिद्धांत में इन कर्म भेदों का बड़े विस्तार से वर्णन मिलता है / केवल कर्म प्रकृति के ही 158 भेद हैं / सामान्यतः ज्ञानावरण के पांच, दर्शनावरण के नव, वेदनीय के दो, मोहनीय के अट्ठाईस, आयु के चार, नाम के बयालीस, गोत्र के दो तथा अन्तराय के चार भेद हैं। फिर इनके अवान्तर भेद हैं। ___इस कर्म बंध का जिस प्रकार ब्राह्मण दर्शन या बौद्ध दर्शन में चक्र मिलता है, वह कर्म चक्र यहां भी आचार्यों ने निरूपित किया है / ब्राह्मण दर्शन में माना गया है कि किया गया कर्म अपने सूक्ष्म रूप में जो संस्कार (अदृष्ट' या अपूर्व) छोड़ते हैंवे संचित होते जाते हैं / इस संचित भंडार का जो अंश फलदान के लिए उन्मुख हो जाता है, वह "आरब्ध" या "प्रारब्ध" कहा जाता है और जो तदर्थ उन्मुख नहीं है-वह "अनारब्ध" या * 'संचित" कहा जाता है / किया जा रहा कर्म "क्रियमाण" है / इस प्रकार “क्रियमाण" से “संचित" और "संचित” से “प्रारब्ध" और फिर "प्रारब्ध" योग के रूप में "क्रियमाण" कर्म और फिर इससे आगे-आगे का चक्र चलता रहता है। बौद्ध दर्शन में उसे "अविज्ञप्ति कर्म" कहते हैं, जिसे ऊपर वैशेषिक दर्शन के अनुसार “अदृष्ट" तथा मीमांसा दर्शन के अनुसार "अपूर्व' कहा गया है / सांख्य कर्म-जन्य सूक्ष्म बात को संस्कार नाम से जानता है। "अविज्ञप्ति कर्म" का ही स्थल रूप "विज्ञप्ति कर्म" है / वस्तुतः बौद्ध दर्शन में "धर्म" चित्त और चेतसिक सूक्ष्म तत्व हैं जिनके घात प्रतिघात से समस्त जगत उत्पन्न होता है। एक अन्य दृष्टि से इन्हें "संस्कृत" और "असंस्कृत"-दो भेदों में विभक्त किया जाता है / इन्हें “सास्रव" और "अनास्रव" नाम से भी जाना जाता है। संस्कृत धर्म हेतु-प्रत्यय-जन्य होते हैं, इसके भी चार भेदों में से एक है-रूप। रूप के ग्यारह भेद हैं- पांच इन्द्रिय और पांच विषय तथा एक अविज्ञप्ति / चेतनाजन्य जिन कर्मों का फल सद्य: प्रकट होता है उन्हें "विज्ञप्ति" कर्म कहते हैं और जिनका कालान्तर में प्रकट होता है-उन्हें "अविज्ञप्ति" कहते हैं। इन्हें "संचित" "प्रारब्ध" के समानान्तर रख कर परख सकते हैं। सामान्यतः यह विवेचन वैभाषिक बौद्धों के अनुसार है। __ महर्षि कुंदकुंद ने पंचास्तिकाय में जैन चिन्ताधारा के अनुरूप कर्मचक्र को स्पष्ट किया है। मिथ्यादृष्टि, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग- सभी बंध के कारण हैं। यह तो माना ही गया है कि जीव और कर्म का अनादि संबंध है / अर्थात् जीव अनादि काल से संसारी है और जो संसारी है, वह राग, द्वेष आदि भावों को पैदा करता है, जिनके कारण कर्म आते हैं। कर्म से जन्म लेना पड़ता है, जन्म लेने वाले को शरीर ग्रहण करना पड़ता हैं। शरीर में इन्द्रियां होती हैं / इन्द्रियों द्वारा विषयों का ग्रहण होता हैं और विषयों के कारण राग-द्वेष होते हैं और फिर राग-द्वेष से पौद्गलिक कर्मों का आकर्षण होता हैं। इस प्रकार यह चक्र चलता ही रहता है। इस कर्म चक्र से मुक्ति पाने के लिए तीनों ही धाराएं यत्नशील हैं। तदर्थ कहीं शील, समाधि और प्रज्ञा का विधान है और कहीं सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान तथा सम्यक चारित्र तथा कहीं श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन का उपदेश है। कहीं परमेश्वर अनुग्रह या शक्तिपात, दीक्षा तथा आय का निर्देश है। इस प्रकार विभिन्न मार्गों से हिन्दू संस्कृति की विभिन्न धाराओं में "कर्मचक्र" से मुक्ति पाने और स्वरूपोपलब्धि तक पहुंचने का क्रम निर्दिष्ट हुआ है / जैन दर्शन सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् चारित्र को सम्मिलित रूप से मोक्षमार्ग मानता है। राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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