Book Title: Jain Karm Siddhant Namkarm ke Vishesh Sandarbh me Author(s): Fulchandra Jain Shatri Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf View full book textPage 7
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि १६. परघात नामकर्म जिसके उदय से दूसरे का घात करने वाले अंगोपांग हो उसे परघात नामकर्म कहते हैं । जैसे बिच्छू की पूंछ आदि । १७. उच्छ्वास जिसके उदय से जीव में श्वासोच्छ्वास हो । १८. आतप जिसके उदय से जीव के शरीर में आतप अर्थात् अन्य को संतप्त करने वाला प्रकाश उत्पन्न होता है वह आतप है। जैसे सूर्य आदि में होने वाले पृथ्वीकायिक आदि में ऐसा चमत्कारी प्रकाश दिखता है । १६. उद्योत जिसके उदय से जीव के शरीर में उद्योत (शीतलता देने वाला प्रकाश) उत्पन्न होता है वह उद्योत नामकर्म है। जैसे चन्द्रमा, नक्षत्र, विमानों और जुगनू आदि जीवों के शरीरों में उद्योत होता है । २०. विहायोगति जिसके उदय से आकाश में गमन हो उसे विहायोगति नामकर्म कहते हैं । इसके प्रशस्त और अप्रशस्त - ये दो भेद हैं। २१. त्रस नामकर्म जिसके उदय से द्वीन्द्रियादिक जीवों में उत्पन्न हो, उसे स नामकर्म कहते है । २२. स्थावर जिसके उदय से एकेन्द्रिय जीवों (स्थावर कायों) में उत्पन्न हो वह स्थावर नामकर्म है । ४० Jain Education International २३. बादर (स्थूल) जिसके उदय से दूसरे को रोकने वाला तथा दूसरे से रुकनेवाला स्थूल शरीर प्राप्त हो उसे बादर शरीर नामकर्म कहते हैं । २४. सूक्ष्म नामकर्म जिसके उदय से ऐसा शरीर प्राप्त हो, जो न किसी को रोक सकता हो और न किसी से रोका जा सकता हो, उसे सूक्ष्म शरीर नामकर्म कहते हैं । २५. पर्याप्त जिसके उदय से आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन - इन छह पर्याप्तियों की रचना होती है वह पर्याप्त नामकर्म है । ये ही इसके छह भेद हैं । २६. अपर्याप्त उपर्युक्त पर्याप्तियों की पूर्णता का न होना अपर्याप्ति है । २७. प्रत्येक शरीर नामकर्म जिसके उदय से एक शरीर का एक ही जीव स्वामी हो उसे प्रत्येक शरीर नामकर्म कहते है । २८. साधारण शरीर नामकर्म जिसके उदय से एक शरीर के अनेक जीव स्वामी हो, उसे साधारण- शरीर नामकर्म कहते है । २६. स्थिर नामकर्म - जिस कर्म के उदय से शरीर की धातुएँ ( रस, रुधिर, मांस, मेद, मज्जा, हड्डी और शुक्र ) इन सात धातुओं की स्थिरता होती है वह स्थिर नामकर्म है । ३०. अस्थिर जिसके उदय से इन धातुओं में उत्तरोत्तर अस्थिर रूप परिणमन होता जाता है वह अस्थिर नामकर्म है । जैन कर्मसिद्धान्त : नामकर्म के विशेष सन्दर्भ में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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