Book Title: Jain Hindi kavya me Vyahrut Samkhyaparak Kavya Rup
Author(s): Mahendrasagar Prachandiya
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 2
________________ पच्चीसी-पच्चीसी का अपर नाम पचीसीका भी प्राप्त है। इस काव्यरूप में पचीस की संख्या रहती है पर कवियों द्वारा दो-तीन अधिक पद्यों का लिखना प्रायः प्रचलित है। इसमें धार्मिक, दार्शनिक तथा उपदेशपरक बातों का विवेचन होता है । सत्रहवीं शती के कवि बनारसीदास" द्वारा रचित पचीसी काव्य उपलब्ध है । अठारहवीं शती के कविवर रामचन्द्र, भैया भगवतीदास," ध्यानतराय", भूधरदास" तथा उन्नीसवीं शती के कवि विनोदी लाल" द्वारा रचित अनेक पचीसियां उपलब्ध हैं। पंचासिका-इस काव्यरूप में पचास पदों का समावेश रहता है । इसमें नीति, उपदेश तथा कल्याणकारी बातों का चित्रण हुआ है। विवेच्य काव्य में यह सत्रहवीं शती में सर्वप्रथम कविवर सुन्दरदास द्वारा रची गई है। अठारहवीं शती के कविवर ध्यानतराय" और बिहारीदास ने स्वतंत्र पंचासिका काव्यरूप का व्यवहार किया है। पंचशती-इस काव्यरूप में पांच सौ पद्यों अथवा छन्दों का प्रयोग हुआ करता है। इस काव्यरूप का प्रयोग-प्रचलन प्रायः अवरुद्ध हो गया। उन्नीसवीं शती के कविवर क्षत्रपति द्वारा पंचशती का प्रयोग हुआ है। बत्तीसी- इस काव्यरूप में बत्तीस संख्या का प्रयोग होता है। जैन कवियों ने तीर्थंकरों, मुनियों के गुणों पर आधृत बत्तीसियां लिखी हैं । सत्रहवीं शती के कविवर हरिकलश" तथा बनारसीदास द्वारा बत्तीसी का प्रयोग उपलब्ध होता है। अठारहवीं मत्ती के कविवर अजयराज पाटनी", भवानीदास", लक्ष्मीवल्लभ", भैया भगवतीदास", अचलकीर्ति" तथा मनराम" द्वारा विभिन्न पत्तीसियां रची गई हैं। बहत्तरी-बहत्तरी काव्यरूप में बहत्तर संख्या को महत्त्व दिया जाता है। इसका प्रयोग अठारहवीं शती में प्रचलित रहा है।" आनन्दघन" तथा जिनरंगसूरि" द्वारा विरचित बहत्तरियां उल्लेखनीय हैं। बारहमासा-बारहमासा संख्यापरक लोक काव्यरूप है।" इसमें वर्ष के बारह महीनों का प्रयोग होता है। इस काव्यरूप द्वारा विप्रलम्भ शृगार का प्रयोग हुआ है। इसके अतिरिक्त संयोग शृगार, षटऋतु वर्णन, भक्ति तथा सिद्धान्त, पुत्र-वियोग, समाज. सुधार, नीति तथा अनुभव की बातों के लिए इस काव्यरूप का व्यवहार द्रष्टव्य है ।" यह काव्यरूप हिन्दी में बारहवीं शती से प्रयुक्त हुमा है। विनय चन्द्रसूरि हिन्दी बारहमासा काव्यरूप के आदि कवि माने जाते हैं । सत्रहवीं और अठारहवीं शती में इस काव्य का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है । सत्रहवीं शती के कविवर रलकीर्ति", कुमुदचन्द्र", भगवतीदास द्वारा बारहमासा रचे गए हैं। अठारहवीं शती के जिनहर्ष", लक्ष्मी वल्लभ," विनोदी लान" तथा भवानीदास" विरचित बारहमासा उल्लेख्य हैं। उन्नीसवीं शती के शान्तिहर्ष तथा नयनसुखदास" विरचित बारहमासा काव्य भी महत्त्वपूर्ण हैं। बावनी-इस काव्यरूप में बावन छन्दों का व्यवहार होता है। पन्द्रहवीं शती से यह काव्यरूप वर्षों के आधार पर लिखने के कारण कक्का तथा मातृका नामों से व्यवहृत होता रहा है।" हिन्दी में तब इस प्रकार की कृतियों को 'अखरावट' कहा जाता था।" पन्द्रहवीं शती के जयसागर" विरचित बावनी काव्यकृति उल्लेखनीय है । सोलहवीं शती के छीहल", सत्रहवीं शती के उदयराजजती," होरानन्दमुनि५२ द्वारा रचित काव्य प्रसिद्ध हैं। अठारहवीं शती में यह काव्यरूप सर्वाधिक व्यवहृत हुआ है। कविवर बनारसीदास" हेमराज, मनोहरदास", जिनहर्ष, जिनरंगसूरि", खेतल", लक्ष्मीबल्लभ" द्वारा रचित काव्यकृतियों में इस काव्यरूप का व्यवहार हुआ है। शतक-शतक एक संख्यापरक काव्यरूप है । इसमें सौ की संख्या का महत्त्व है। यह काव्यरूप संस्कृत से अपभ्रंश भाषा में होता हुआ हिन्दी में अवतरित हुआ है। हिन्दी जैन शतक काव्य की एक सुदीर्घ परम्परा रही है। सत्रहवीं शती में कविवर निल", रूपचन्द्र पाण्डे द्वारा रचित शतक उल्लिखित हैं। अठारहवीं शती में भवानीदास", भूधरदास," भैया भगवतीदास", हेमराज", यशोविजय" तथा उन्नीसवीं शती में कविवर वृन्दावनदास", बुधजन" तथा वासी लाल कृत शतक काव्य उल्लेखनीय हैं। यह काव्यरूप बीसवीं शती में भी समादृत रहा है । कवयित्री चम्पाबाई" तथा पद्मचन्द्र जैन भगतजी" कृत शतक बहुचर्चित हैं। इन सभी शतक काव्य कृतियों में जैन-दर्शन तथा संस्कृति की विशद व्यंजना हुई है। षट्पद-अष्टक की भांति षट्पदों की रचना को षट्पद नामक काव्यरूप संज्ञा से सम्बोधित किया गया है। अठारहवीं शती के कविवर विद्यासागर" कृत षट्पद उल्लेखनीय हैं। सतसई-यह संख्यापरक काव्य है। यह भी अपभ्रंश से हिन्दी में गृहीत हुआ है। इसमें सात सौ से अधिक छन्दों का व्यवहार होता है। गाथा सप्तशती के आधार पर हिन्दी में यह सतसई कहलाया।" सत्रहवीं शती में कविवर सुन्दरदास' तथा उन्नीसवीं शती में कविवर बुधजन" द्वारा इस काव्यरूप का व्यवहार हुआ है। इन काव्यों में नीति, उपदेश तथा आध्यात्मिक पर्चाए भभिव्यक्त हुई हैं। नन साहित्यानुशीलन १४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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