Book Title: Jain Hindi Kavya me Samayik
Author(s): Alka Prachandiya
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ 3 खण्ड 4 : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन यत्सर्व द्रव्यसंदर्भ राग - द्वषत्यमोहनम् / आत्मतत्व विनिष्ठस्य तत्सामायिकमुच्यते / / (योगसार 5/47) संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रश जैन वाङमय में व्यवहृत 'सामायिक' शब्द अपने इसी अर्थअभिप्राय में हिन्दी जैन काव्य में भी गृहीत है / सोलहवीं शती के आध्यात्मिक कवि ब्रह्मजिनदास द्वारा रचित 'आदिपुराणरास' रचना में सामायिक शब्द के अभिदर्शन होते हैं तीनों प्रतिमा पाले नीम लेय सामाइक तीनों काल रे। सत्रहवीं शती के कविश्री जिनहर्ष ने 'तेरह काठिया स्वाध्याय' रचना में इस शब्द का व्यवहार किया है सामायिक प्रोषध नवकार, जिनवंदन गुरु वन्दन वार। (जिनहर्ष ग्रन्थावली, पृष्ठ 480) पंडित बनारसीदास द्वाग विरचित 'नाटक समयसार' में सामायिक शब्द इसी अर्थ में दृष्टिगत है ‘दर्शन विशुद्धकारी बारह व्रतधारी, सामाइक चारी पर्व प्रोषद विधि कहे। (नाटक समयसार, पृष्ट 138) अठाहरवीं शती के कवि भैया भगवतीदास द्वारा रचित 'द्रव्यसंग्रह' रचना में यह शब्द अभिव्यञ्जित है व्रत प्रतिज्ञा दूजौ भाव, तीजौ मिल्यौ सामायिक भाव / -ब्रह्मविलास कवि दौलतराम द्वारा प्रणीत 'क्रियाकोश' रचना में इस शब्द की अभिव्यक्ति हई है तहाँ जहाँ सामायिक करे, अथवा श्री जिनपूजा धरे, इतने थानक चंदवा होय दीसै श्रावक को घर सोय / -छन्द 180 उन्नीसवीं शती के कवि वृन्दावनलाल द्वारा प्रणीत 'प्रवचनसार' रचना सामायिक शब्द के आधार पर ही रची गई है यथा रागादिक बिनु आपको लखे, सिद्ध समतूल परम सामायिक दशा तब सो लहें अतूल / -पृष्ठ 174 बीसवीं शती की कृतियों में भी सामायिक शब्द इसी अर्थ परम्परा को लेकर अवतरित हुआ है। कवि लक्ष्मीचन्द्र द्वारा रचित 'लक्ष्मी विलास' रचना में सामायिक शब्द दृष्टिगत है-यथा सो छह विधि सामाइक वंदन, स्तवन, प्रतिक्रमण स्वाध्याय, कायोत्सर्ग नाम षट् जानौ फिर इक इक् छह भेद बताय। (छन्द 55) . इस प्रकार सामायिक से शुभोपयोग/शुद्धोपयोग होता है तथा यथातथ्य से साक्षात्कार होता है। सामायिक का अधिकारी वही साधक है जो त्रस-स्थावर रूप सभी जीवों पर समभाव रखता है। उसी का सामायिक शुद्ध होता है जिसकी आत्मा संयम, तप और नियम में संलग्न हो जाती है। शरीर से शुद्ध होकर वैत्यालय में अथवा अपने ही घर में प्रतिमा के सम्मुख अथवा अन्य पवित्र स्थान में पूर्वमुख या उत्तरमुख होकर जिनवाणी, जिनधर्म, जिनबिम्ब, पंचपरमेष्ठी और कृत्रिम-अकृत्रिम जिनालयों को नित्य त्रिकाल वंदना तथा अपने स्वरूप का अथवा जिनबिम्ब का अथवा पंचपरमेष्ठी के वाचक अक्षरों का अथवा कर्मविपाक का अथवा पदार्थों के यथावस्थित स्वरूप का, तीनों लोक का और अशरण आदि वैराग्य भावनाओं का चिन्तवन करते हुए ध्यान करना सामायिक का योग्य ध्येय है। पता-मंगलकलश, 364 सर्वोदय नगर आगरा रोड, अलीगढ़ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 2