Book Title: Jain Gyan Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 7
________________ जैनधर्म एवं दर्शन-293 जैन ज्ञानमीमांसा-1 विभाग-3 जैन ज्ञानमीमांसा जैन दर्शन में पंचज्ञानवाद जैन दर्शन में ज्ञान के दो रूप माने गये - 1. यथार्थज्ञान (सम्यक्ज्ञान) और 2. मिथ्याज्ञान / सामान्यतया, वस्तुएँ या तथ्य जैसे हैं, वैसे जानना यथार्थज्ञान या सम्यज्ञान है और वस्तु या तथ्य को यथार्थ स्वरूप में न जानकर उससे भिन्न या इतर रूप से जानना मिथ्याज्ञान है। पुनः, जैन-दर्शन के अनुसार हमारी यथार्थ अनुभूति भी दो प्रकार की होती है - 1. वस्तु जैसी है, वैसी ही अनुभव करना और 2. वस्तु जैसी प्रतीत होती है, वैसी अनुभूति करना। यद्यपि ये दोनों ज्ञान अपेक्षा-भेद से सत्य हैं, किन्तु वे दोनों अपनी पृथक्-पृथक् अनुभूति के कारण अपेक्षा भेद से ही सत्य हैं, फिर भी आंशिक सत्य ही हैं, सम्पूर्ण सत्य नहीं हैं। जैन-दर्शन में वस्तु-स्वरूप की यथार्थ अनुभूति को निश्चय सत्य कहा गया है, जबकि प्रतीतिगम्य सत्य को मात्र व्यवहार सत्य कहा गया है। यथार्थ अनुभूति को निश्चय सत्य और प्रतीतीगत अनुभूति को व्यवहार सत्य कहा गया है। निश्चय और व्यवहार की चर्चा हम अलग से करेंगे। यहाँ तो मात्र इन दोनों पक्षों का दिग्दर्शन करा रहे हैं। दूसरे, जैन दर्शन सत्य ज्ञान या अनुभूति को ही प्रमाणरूप नहीं मानता है। चाहे व्यावहारिक रूप से उन्हें सत्य कहा जाये; किन्तु वस्तुतः तो वे सम्यक् या सत्य नहीं हैं। इस हेतु जैनों ने उस ज्ञान को ही सम्यकज्ञान कहा है, जो जिया जाता है। मान लें कि एक व्यक्ति यथार्थ रूप से यह जानता है कि शराब पीने से कौन-कौनसी हानियाँ होती हैं, फिर भी यदि वह शराब पीता है, तो जैनदृष्टि से उसे ज्ञानी नहीं माना जाएगा। यही कारण है कि जैन-दर्शन में ज्ञान से तात्पर्य वहीं ज्ञान है, जो आचरण में उतारा जाता है, अन्य ज्ञान तो मात्र जानकारी या सूचनाएँ हैं, इसलिए कहा गया है कि - .. जेण तच्चं विबुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरूज्झदि।

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