Book Title: Jain Ekta ka Prashna
Author(s): 
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 9
________________ यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - समाज एवं संस्कृति - और मन्दिर के साथ जो परिग्रह जुड़ता जा रहा है वह युक्तिसंगत नहीं है कि आचार्य भिक्षु ने स्थानकवासी समाज के साधुओ में आई है। श्वेताम्बर मुनि श्री न्यायविजय जी ने भी इसका विरोध किया था। आचारगत विकृतियों को दूर करने के लिए क्रान्ति की थी, चाहे इस बात यही सब विवादों का मुख्य कारण बन रहा है। में आंशिक सत्यता भी हो किन्तु मूल बात तो विचारगत भित्रता की थी। एकता की दृष्टि से यही अच्छा विकल्प होगा कि पद्मासन मूल प्रश्न यही था कि लोक-मंगल के उन कार्यो को जिनमें अल्पतम की ध्यान मुद्रायुक्त प्रतिमाओं को ही अपनाया जाए और उस पर कन्दोरा, हिंसा की भी सम्भावना हो, धर्म के अन्तर्गत माना जाये अथवा नहीं ? लंगोट, स्फटिक नेत्र आदि का उपयोग न हो । यद्यपि इसे तभी अपनाना आचार्य भिक्ष ने ऐसे कार्यों को स्पष्ट रूप से धर्म-साधना के अन्तर्गत नहीं होगा जबकि दोनों सम्प्रदाय अपना विलीनीकरण कर लें अन्यथा ऐसी माना था। चाहे उनकी इस मान्यता के पीछे निरपेक्ष अहिंसा के सिद्धान्त मूर्तियों को लेकर जैसे विवाद आज है, वैसे विवाद बाद में भी उठ खड़े का और तत्सम्बन्धी सूत्रकृतांग आदि के कुछ आगमिक प्रमाणों का बल होगें। भी हो, किन्तु यह अवधारणा मनुष्य की जन-कल्याणकारी प्रवृतियों के जहाँ तक मूर्तिपूजा सम्बन्धी विधि-विधान का प्रश्न है, उसमें विरोध में जाती है और लोक-व्यवहार में जैनधर्म को आलोचना का भी आडम्बर बाद में ही बढ़ा है, अत: अच्छा यही होगा कि दिगम्बर- विषय बनाती है। यही कारण है कि तेरापंथ परम्परा के व्यवहार-कुशल परम्परा के तेरापंथ में जो अचित द्रव्यों से पूजा का विधान है उसे आचार्य तुलसी ने इस वास्तविकता को समझा और लोक-व्यवहार के स्वीकार कर लिया जाये। मूर्ति की द्रव्य-पूजा में हिंसा अल्पतम हो, नाम पर ही सही, लोक-कल्याणकारी प्रवृत्तियों को अपने धर्म-लोक में यह बात ध्यान में रखना आवश्यक है। जिन-मन्दिरों में यज्ञों को तो प्रोत्साहित किया है । इस सम्बन्ध में कट्टर तेरापंथियों ने उनकी तत्काल बन्द कर देना चाहिए, यह पूर्णत: ब्राह्मण-संस्कृति का प्रभाव आलोचना भी की है। किन्तु उन्होंने साहसपूर्वक यह परिवर्तन किया है। है । मात्र यही नहीं, द्रव्यपूजा की अपेक्षा भावपूजा पर और प्रभु-भक्ति राणावास की शिक्षा संस्थाएँ और लाडनूं का आयुर्वेदिक चिकित्सा केन्द्र के माध्यम से प्रभु के गुणों को जीवन में उतारने का लक्ष्य अधिक रहे। इस बात का स्पष्ट प्रमाण है। आज कोई भी तेरापंथी मुनि अन्य सम्प्रदाय जिन-प्रतिमा हमारी भावनाओं की विशुद्धि का साधन है और एक साधन के मुनियों को आहार देना या असंयती जनों की सेवा करना पाप है के रूप में उसका स्थान है। यहाँ यह भी ध्यान रखना होगा कि मूर्ति -- ऐसा स्पष्ट उद्घोष नहीं करता है । यह एक शुभ लक्षण है - इसके और उसकी द्रव्यपूजा की आवश्यकता, साधना और ज्ञान प्राथमिक स्तर कारण तेरापंथ और दूसरे जैन सम्प्रदायों के बीच की दूरी कम हुई है और पर उसी प्रकार है, जिस प्रकार वर्णमाला का अर्थबोध कराने के लिए वह जन साधारण में आलोचना का विषय बनने से बचा है । व्यवहार प्राथमिक स्तर पर चित्रों की सहायता अपेक्षित है । के क्षेत्र में सेवा और दान का महत्त्व है, इतना तो हमें मानकर चलना होगा। मुखवस्त्रिका के प्रश्न का समन्वय श्वेताम्बर-सम्प्रदायों में एक विवाद मुखवस्त्रिका को लेकर भी हमारी एकता का स्वरूप क्या हो ? है । स्थानकवासी और श्वेताम्बर-तेरापंथी डोरा डालकर उसे सदैव ही एकता की बात करना सहज है किन्तु वह एकता किस प्रकार मुखपर बाँधे रहते हैं। मुखवस्त्रिका का विकास महावीर के परवर्ती काल सम्भव होगी, यह बता पाना कठिन है । एकता का एक रूप तो वह में हुआ है । ऐसा कोई भी ठोस प्रमाण नहीं है, जिससे सिद्ध हो कि हो सकता है जिसमें सभी अपने नाम-रूप खोकर एक हो जायें अर्थात् महावीर ने मुखवस्त्रिका रखी थी। आचारांग के प्राचीनतम अंश प्रथम सभी सम्प्रदाय विलीन होकर जैनधर्म और समाज का एक ही रूप श्रुतस्कन्ध में मुखवत्रिका का उल्लेख नहीं है । यद्यपि लगभग दो हजार अस्तित्व में रहे । एकता का यह स्वरूप आदर्श तो हो सकता है किन्तु वर्ष पूर्व से इसका प्रयोग श्वेताम्बर परम्परा में होता रहा है, ऐसा श्वेताम्बर इसकी व्यवहार्यता सन्देहास्पद है । आज सम्प्रदायों की जड़ें इतनी गहरी आगम-साहित्य से सिद्ध होता है । तथापि डोरा डालकर बाँधने के जम चुकी हैं कि उन्हें पूरी तरह उखाड़ पाना सम्भव नहीं है । सम्प्रदायों सम्बन्ध में ठोस ऐतिहासिक प्रमाण १७-१८ वीं के पूर्व के नहीं मिले के अस्तित्व के साथ ही लोगों के हित और सम्मान के प्रश्न जुड़े हुए हैं। मुखवत्रिका के उपयोग का मुख्य उद्देश्य तो वायुकायिक जीवों की हैं। बाहर से चाहे हम सब एकता की बातें करें किन्तु भीतर से कोई रक्षा है । डोरा डालकर उसका प्रयोग करना मात्र एक सुविधा की बात भी अपने अस्तित्व और अहं को विलीन करने को तैयार नहीं है । जब है । एकता की दृष्टि से इस समस्या का हल यही हो सकता है - प्रवचन भी हमें अपने हितों या अस्तित्व के प्रति खतरा नजर आता है, हम 'धर्म आदि के प्रसंगों पर उसे बाँधा जाये, अन्य अवसरों पर बातचीत करते खतरे में हैं' का नारा लगाना प्रारम्भ कर देते हैं । जब आज हम एक समय उसका सावधानीपूर्वक उपयोग किया जाये । मूर्ति या मन्दिर पर से भी अपना अधिकार छोड़ना नहीं चाहते हैं, तो क्या यह सम्भव है कि हम अपनी सम्पूर्ण सामाजिक एवं धार्मिक सम्पत्ति को दया-दान के विवाद का प्रश्न समर्पित करने को सहज ही तैयार हो जाएँगे। जब स्थानकवासी मुनि श्वेताम्बर-तेरापंथ का जैन-समाज के अन्य सम्प्रदायों से मुख्य वर्ग की अपनी बनाई हुई एकता को कायम नहीं रख सका, तो यह कैसे विवाद दया-दान के प्रश्न को लेकर है । यद्यपि आज यह कहा जाता कहा जा सकता है कि सभी सम्प्रदायों के मुनि और श्रावक अपनी-अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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