Book Title: Jain Drushti me Dharm ka Swarup Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf View full book textPage 5
________________ इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि जैन आचार शास्त्रीय ग्रन्थों में वैयक्तिक दृष्टि से समता और सामाजिक दृष्टि से अहिंसा को धर्म कहा गया है। धर्म सदाचार या सद्गुण के रुप में: प्रकारांतर से अर्धमागधी और शौरसेनी जैन आगम साहित्य में क्षमा, सरलता, निर्लोभता, सत्यता, संयम आदि को भी धर्म के रूप में परिभाषित किया गया है। १ आचारांग में क्षमा आदि सद्गुणों को धर्म कहा गया है।५ २ स्थानांग में क्षमा, अलोभ, सरलता, मृदुलता, लधुत्व, सत्य, संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्यवास आदि धर्म के १० रुप प्रतिपादित कीए गये है। ३ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी क्षमादि दस सद्गुणों को दसविध-धर्म के रुप में परिभाषित किया गया वस्तुत: यह धर्म की सद्गुणपरक या नैतिक परिभाषा है। वे सभी सद्गुण जो सामाजिक समता को बनाए रखते हैं सामाजिक समत्व के संस्थापन से धर्म कहे गए हैं। क्षमादि इन सद्गुणों की विशेषता यह है कि ये वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही जीवन में समत्व या शांति संस्थापन करते हैं। वस्तुत: धर्म की इस व्याख्या को संक्षेप में हम यह कह कर प्रकट कर सकते हैं कि सगुण का आचरण या सदाचरण ही धर्म है और दुर्गुण का आचरण या दुराचरण ही अधर्म है। इस प्रकार जैन आचार्यों ने धर्म और नीति अथवा धर्म और सद्गुण में तादात्म्य स्थापित किया है, उनके अनुसार धर्म और अनैतिक जीवन सहगामी नहीं हो सकते। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले के अनुसार भी वह धर्म जो अनैतिकता का सहगामी है वस्तुत: धर्म नहीं अधर्म है। धर्म: जिनाज्ञा का पालन: आचारांग में धर्म की एक अन्य परिभाषा हमें इस रुप में मिलती है कि आज्ञा पालन में धर्म है। तीर्थंकर या वीतराग पुरुषों के आदेशों का पालन ही धर्म है। आचारांग में महावीर स्पष्ट रूप से कहते हैं कि मानवों के लिये मेरा निर्देश है कि मेरी आज्ञा का पालन करना ही धर्म है। यहां आज्ञा-पालन का तात्पर्य सद्गुणों को जीवन में अपनाना है। यही धर्म का व्यवहारिक पक्ष है। आचारांग में उपलब्ध धर्म की यह परिभाषा हमें मीमांसा दर्शन में उपलब्ध धर्म की उस परिभाषा की स्मृति दिला देती है जहां धर्म को ५) आचारांग १/६१५ ६) दसविदे समण धम्मे पारणत्ते तं जहाँ - खंति, मुक्ति, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे, सचे, संजये, तवे, चिचाए, बंभचेरवासे।। स्थानांग १०/७१२/(च० पृ० ३१) सातव्य है कि आचारांग १/६/५, समवायांग १०/१, बारस्स अणुवेक्सा, तत्वार्थ ९/६ आदी में इनका उल्लेख है यदापी आचारांग और स्थानांग की सूचीमें कुछ नाम भेद है। वैदिक परम्परा में मनुस्मृति १०/६३, ६/९२, महाभारत आदि पर्व ६०/१५, में भी कुछ नाम भेद के साथ इनके उल्लेख है। श्रीमद्भागवत् में ४/४९ धर्म की पत्नियों एवं पुत्रों के रुप में सद्गुणों का उल्लेख है। ७) बारस्सअणुवेक्खा/ (कार्तिकेय) /४७८ ८) आणाए मामगं धम्म-एस उत्तरवादे इह माणवाणं वियाहिए। - आचारांग १/०/२/१८५ (च.पृ. ३०) कर्म की सत्ता (प्रभाव) किसे नहीं भोगनी पडी है? ३२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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