Book Title: Jain Dharm me Tapa ka swarup Author(s): Amrutchandra Muni Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 1
________________ घोरतपस्वी मुनि अमृतचंद्र 'प्रभाकर' अनादिकालिक कर्मों से आबद्ध आत्मा मलिन हो जाता है। अतः ज्ञानी पुरुषों ने अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार अनेक संशुद्धि के उपाय प्रस्तुत किये हैं। जैन धर्म में 'तप' को आत्मशुद्धि का महत्वपूर्ण कारक माना जाता है। जैसे- सुवर्ण अग्नि में तप कर, विशुद्ध होकर अत्यधिक चमक प्राप्त करता है वैसे ही तप रूपी अग्नि से परिष्कृत होकर मानव का व्यक्तित्व निखरता है, आत्मा का सौंदर्य झलकता है। 'तप' वह प्रक्रिया है, जिससे मानव स्वरूप को पाने के लिये अग्रसर होता है तथा उसे सहज रूप में प्राप्त भी कर लेता है। जैन धर्म में तप का स्वरूप जैन धर्म में तप का विश्लेषण अतीव विशद रूप में हुआ है जिसका संक्षिप्त स्वरूप इस लघुनिबंध के माध्यम से प्रस्तुत करने का मेरा प्रयास है - 1 तप की व्याख्यायें 'तप' शब्द तप् तपने धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है - तपाना । तपना । 'तप' शब्द की व्याख्यायें अनेक आचार्यों ने की हैं। जैनागमों के प्रसिद्ध चूर्णिकार जिनदास गणीमहत्तर ने तप की व्युत्पत्तिजन्य परिभाषा करते हुए कहा है । तप्यते अणेण पावं कम्मिमिति तवो?? अर्थात् जिस साधना से दुष्कृत कर्मों का क्षय होता है- उसे तप कहते हैं । आचार्य अभयदेवसूरि ने 'तप' का निरुक्तिलक्ष्य अर्थ प्रस्तुत किया है । रसरुधिमांस में दोऽस्थि गज्जाशुक्राण्यनेन तप्यंते कर्माणि वाडशुभानि इत्यतस्तपो नाम निरुक्तः । - जिस साधना से शरीर के रस, रक्त, मांस हड्डियाँ, मज्जा शुक्र आदि तप जाते हैं, सूखे जाते है, वह तप है तथा जिसके द्वारा अशुभ कर्म जल जाते है, वह 'तप' कहलाता है । आचार्य मलय गिरि ने कहा है । १. २. ३. Jain Education International तापयति अष्टप्रकार कर्म - इति तपः । निशीथ चर्णि ४६ स्थानांग वृत्ति - ५ आवश्यक मलयगिरी, खण्ड २ अध्ययन १ (२३४) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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