Book Title: Jain Dharm me Tapa
Author(s): Sunila Nahar
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf

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________________ जैन धर्म में तप सौ. सुनीला नाहर जैन संस्कृति तप प्रधान संस्कृति है । जीवन को जीवंत एवं आत्मा को तेजोमय बनाने में तप का महत्वपूर्ण स्थान है। 'तवस्सा कम्मं खवई' तप के माध्यम से अनंत संचित कर्म क्षणमात्र में नष्ट हो सकते है। उत्तराध्ययन सूत्र में नमि महर्षि ने ब्राह्मण के रूप में परिक्षार्थ आये इंद्र से कहा तव नाराय जुत्तेण, भित्तूणं कम्म -कंचुयं तप के लोहबाण से कर्म रूपी कवच को चीरकर साधक वास्तविक विजय प्राप्त कर संसार - सागर से पार उस दिव्यलोक में पहुंच जाता है जहां आधि, व्याधि एवं उपाधि का नाम भी नहीं है। जहां सदा शाश्वत, अखंड, अविभाज्य, अलौकिक आनंद की उपलब्धि होती है । तारक प्रभु महावीर ने कहा एवंतु संजयस्सावि, पावकम्मं निरासवे भव कोडि संचियं कम्मं, तवस्सा निज्जरिज्जई !! उत्त. ३०/६ साधक साधना के क्षेत्र में बढ़ते हुए कदमों से तप द्वारा पाप कर्मों को रोक देता है तथा जो करोड़ों जन्मों के संचित कर्म व कुसंस्कार है उन्हें तपश्चर्या के द्वारा नष्ट कर देता है । धम्मो मंगल मुक्किट्ठे, अहिंसा संजमो तवो । धर्म उत्कृष्ट मंगल है, अहिंसा, संयम, तप यही धर्म है आत्मशुद्धि और कर्मनाश के लिए तप एक अमोघ साधन है। तप से अनेक लौकिक सिद्धियां भी प्राप्त होती है एक कवि ने कहा है । कांतारं नं यथोतरो ज्वलयितुं, दक्षोदवाग्नि बिना । दावाग्नि न यथेतरो शमयितुं शक्तो विनाम्भोधरम् निष्णातं पवनं बिना निर सितुं, नान्यो यथाम्भोधरम् कर्मोध तपसा बिना किमंपर हर्तुं समर्थों तथा Jain Education International वन को जलाने में दावाग्नि के सिवा कोई अन्य समर्थ नहीं है उस दावाग्नि को मेघ बुझा देता है उस मेघ को भी वायु उड़ा देता है। इसी प्रकार तप कर्ममल को जलाता है और विषय, कषायाग्नि का शमन करता है, वायु के समान उड़ा देता है। भाव यह है कि तप से कर्ममल समूल रूप से नष्ट हो जाता है। (२५०) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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