Book Title: Jain Dharm me Samajik Chintan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf
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________________ जैनधर्म में सामाजिक चिन्तन 10. देखें - सागरमल जैन, व्यक्ति और समाज, श्रमण, वर्ष 34 (1983) अंक 2. 11. देखें - प्रबन्धकोश, भद्रबाहु कथानक. 12. उद्धृत - (क) रतनलाल दोशी, आत्मसाधना संग्रह, पृ० 441. (ख) भगवतीआराधना, भाग 1, पृ० 197. 13. Bradle, Ethical Studies. 14. मुनि नथमल, नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ० 3-4. 15. उमास्वाति, तत्त्वार्थसूत्र, 5/21. 16. उत्तराध्ययनसूत्र, 25/19. 17. आचारांग, 1/2/3/75. 18. सागरमल जैन, सागर जैन-विद्या भारती, भाग 1, पृ० 153. 19. जटासिंहनन्दि, वरांगचरित, सर्ग 25, श्लोक 33-43. 20. आचारांगनियुक्ति, 19. 21. आवश्यकचूर्णि, भाग 1, पृ० 152. 22. जिनसेन, आदिपुराण, 11/166-167. 23. अन्तकृद्दशांग, 3/1/3. 24. उपासकदशांग, 1/48. 25. वही, 1/48. 26. वही, 1/48. 27. ज्ञाताधर्मकथा, 8 ( मल्लिअध्ययन ), 16 ( द्रौपदी अध्ययन ). 28. अन्तकृद्दशांग, 5/1/21. 29. स्थानांग, 10/760 / विशेष विवेचन के लिये देखें - धर्मव्याख्या, जवाहर लालजी म. और धर्म-दर्शन, शुक्लचन्द्रजी म. 30. धर्मदर्शन, पृ० 86. 31. दशवैकालिकनियुक्ति, 158. 32. नन्दीसूत्र -- पीठिका, 4.17. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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