Book Title: Jain Dharm me Samajik Chintan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 5
________________ जैन धर्म में सामाजिक चिन्तन ५३७ बालभाव से मुक्त होने पर ही विवाह किये जाते थे। इससे यह स्पष्ट जैन परिवार के युवक-युवतियों का जैन परिवार में ही विवाह हो जाता है कि जैनधर्म में बाल-विवाह की अनुमति नहीं थी । मात्र यही हो, यह आवश्यक नहीं था । अनेक जैन कथाओं में अन्य धर्मावलम्बी नहीं, कुछ कथानकों में बाल-विवाह के अथवा अवयस्क कन्याओं के कन्याओं से विवाह करने के उल्लेख मिलते हैं और यह व्यवस्था आज विवाह के दूषित परिणामों के उल्लेख भी मिल जाते हैं । विवाह सम्बन्ध भी प्रचलित है । आज भी जैन परिवार अपनी समान जाति के हिन्दू को हिन्दूधर्म की तरह ही जैनधर्म में भी एक आजीवन सम्बन्ध ही माना परिवार की कन्या के साथ विवाह सम्बन्ध करते हैं । इसी प्रकार अपनी गया था । अत: विवाह-विच्छेद को जैनधर्म में भी कोई स्थान नहीं कन्या को हिन्दू परिवारों में प्रदान भी करते हैं । सामान्यतया विवाहित मिला । वैवाहिक जीवन दूभर होने पर उस स्त्री का भिक्षुणी बन जाना ही होने पर पत्नी-पति के धर्म का अनुगमन करती है किन्तु प्राचीन काल एकमात्र विकल्प था । जैन आचार्यों ने अल्पकालीन विवाह-सम्बन्ध और से आज तक ऐसे भी सैकड़ों उदाहरण जैन साहित्य में और सामाजिक अल्पवयस्क विवाह को घृणित माना है और इसे श्रावक-जीवन का एक जीवन में मिलते हैं जहाँ पति पत्नी के धर्म का अनुगमन करने लगता दोष निरूपित किया है । जहाँ तक बहुपति-प्रथा का प्रश्न है, हमें है या फिर दोनों अपने-अपने धर्म का परिपालन करते हैं और सन्तान द्रौपदी के एक आपवादिक कथानक के अतिरिक्त इसका कहीं भी को उनमें से किसी के भी धर्म को चुनने की स्वतन्त्रता होती है। फिर उल्लेख नहीं मिलता है किन्तु बहुपत्नी-प्रथा जो प्राचीनकाल में एक भी इस विसंवाद से बचने के लिये सामान्य व्यवहार में इस बात को सामान्य परम्परा बन गई थी, उसका उल्लेख जैन ग्रन्थों में भी मिलता प्राथमिकता दी जाती है कि जैन परिवार के युवक-युवतियाँ जैन परिवार है। इस बहुपत्नी-प्रथा को जैन-परम्परा का धार्मिक अनुमोदन हो ऐसा में ही विवाह करें। नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सम्पूर्ण जैन वाङ्मय में ऐसा कोई विधायक निर्देश प्राप्त नहीं होता जिससे बहुपत्नी-प्रथा का समर्थन किया पारिवारिक दायित्व और जैन दृष्टिकोण गया हो । जैन-साहित्य मात्र इतना ही बतलाता है कि बहुपत्नी-प्रथा उस गृहस्थ का सामाजिक दायित्व अपने वृद्ध माता-पिता, पत्नी; समय सामान्यरूप से प्रचलित थी और जैन परिवारों में भी अनेक पलियाँ पुत्र-पुत्री आदि परिजनों की सेवा एवं परिचर्या करना है । श्वेताम्बर रखने का प्रचलन था, किन्तु जैन-साहित्य में हमें कोई ऐसा उल्लेख नहीं साहित्य में उल्लेख है कि महावीर ने माता का अपने प्रति अत्यधिक मिलता कि किसी श्रावक ने जैनधर्म के पंच-अणुव्रतों को ग्रहण करने स्नेह देखकर यह निर्णय ले लिया था कि जब तक उनके माता-पिता के पश्चात् अपना दूसरा विवाह किया हो । गृहस्थ उपासक के जीवित रहेंगे, वे संन्यास नहीं लेंगे । यह माता-पिता के प्रति उनकी स्वपत्नीसन्तोषव्रत के जिन अतिचारों का उल्लेख मिलता है उनमें एक भक्ति-भावना का ही सूचक है । यद्यपि इस सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा परविवाहकरण भी है२५ । यद्यपि इसका अर्थ जैन आचार्यों ने अनेक दृष्टि का दृष्टिकोण भिन्न है । जैनधर्म में संन्यास लेने के पहले पारिवारिक से किया है किन्तु इसका सामान्य अर्थ दूसरा विवाह करना ही है। इससे उत्तरदायित्वों से मुक्ति पाना आवश्यक माना गया है। मुझे जैन आगमों ऐसा लगता है कि जैन आचार्यों का अनुमोदन तो एकपत्नीव्रत की ओर में एक भी उल्लेख ऐसा देखने को नहीं मिला जहाँ बिना परिजनों की ही था । आगे चलकर इसका अर्थ यह भी किया जाने लगा कि स्व- अनुमति से किसी व्यक्ति ने संन्यास ग्रहण किया हो। जैनधर्म में आज सन्तान के अतिरिक्त अन्य की सन्तानों का विवाह करवाना किन्तु मेरी भी यह परम्परा अक्षुण्ण रूप से कायम है। कोई भी व्यक्ति बिना परिजनों दृष्टि में यह एक परवर्ती अर्थ है। एवं समाज (संघ) की अनुमति के संन्यास ग्रहण नहीं कर सकता । इसी प्रकार वेश्यागमन को भी निषिद्ध माना गया। अपरिगृहीता माता, पिता, पुत्र, पुत्री, पति या पत्नी की अनुमति प्राप्त करना अर्थात् अविवाहिता स्त्री से यौन-सम्बन्ध बनाना भी श्रावकव्रत का एक आवश्यक होता है । इसके पीछे मूल भावना यही है कि व्यक्ति अतिचार (दोष) माना गया२६ । जैनाचार्यों में सोमदेव ही एकमात्र अपवाद सामाजिक उत्तरदायित्वों से निवृत्ति पाकर ही संन्यास ग्रहण करें । इस हैं जो गृहस्थ के वेश्यागमन को अनैतिक घोषित नहीं करते । शेष सभी बात की पुष्टि अन्तकृद्दशा के निम्न उदाहरण से होती है - जब श्रीकृष्ण जैनाचार्यों ने वेश्यागमन का एक स्वर से निषेध किया है। को यह ज्ञात हो गया कि द्वारिका का शीघ्र ही विनाश होने वाला है, जहाँ तक प्रेम-विवाह और माता-पिता द्वारा आयोजित विवाह तो उन्होंने स्पष्ट घोषणा करवा दी कि यदि कोई व्यक्ति संन्यास लेना सम्बन्धों का प्रश्न है, जैनागमों में ऐसा कोई स्पष्ट निर्देश उपलब्ध नहीं चाहता हो किन्तु इस कारण से नहीं ले पा रहा हो कि उसके माता-पिता, है कि वह किस प्रकार के विवाह-सम्बन्धों को करने योग्य मानते हैं। पुत्र-पुत्री एवं पत्नी का पालन-पोषण कौन करेगा, तो उनके पालनकिन्तु ज्ञाताधर्मकथा के द्रौपदी एवं मल्लि अध्ययन में पिता पुत्री से स्पष्ट पोषण का उत्तरदायित्व मैं वहन कर लूँगा ।२८ यद्यपि बुद्ध ने प्रारम्भ में रूप से यह कहता है कि मेरे द्वारा किया गया चुनाव तेरे कष्ट का कारण संन्यास के लिये परिजनों की अनुमति को आवश्यक नहीं माना था । हो सकता है, इसलिये तुम स्वयं ही अपने पति का चुनाव करोर। अत: अनेक युवकों ने परिजनों की अनुमति के बिना ही संघ में प्रवेश इसका स्पष्ट अर्थ यही है कि जैन-परम्परा में माता-पिता द्वारा आयोजित ले लिया था किन्तु आगे चलकर उन्होंने भी यह नियम बना दिया था विवाहों और युवक-युवतियों द्वारा अपनी इच्छा से चुने गये विवाह कि बिना परिजनों की अनुमति के उपसम्पदा प्रदान नहीं की जाये । मात्र सम्बन्धों को मान्यता प्राप्त थी। यही नहीं उन्होंने यह भी घोषित कर दिया कि ऋणी. राजकीय सेवक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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