Book Title: Jain Dharm me Puja Vidhan aur Dharmik Anushthan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 3
________________ ४९० नहीं रह गया, जितना पूजा आदि के विधि-विधानों को सम्पन्न करना। प्रथम तो पूजा को कृतिकर्म (सेवा) का एक रूप माना गया, किन्तु आगे चलकर उसे अतिथिसंविभाग का अंग बना दिया गया। जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ दिगम्बर परम्परा में भी जैन अनुष्ठानों का उल्लेख सर्वप्रथम हमें कुन्दकुन्द रचित 'दस भक्तियों' में एवं यापनीय परम्परा में मूलाचार के षडावश्यक अध्ययन में मिलता है। जैन शौरसेनी में रचित इन सभी भक्तियों के प्रणेता कुन्दकुन्द है यह कहना कठिन है, फिर भी कुन्दकुन्द के नाम से उपलब्ध भक्तियों में से पाँच पर प्रभाचन्द्र की क्रियाकलाप' नामक टीका है। अतः किसी सीमा तक इनमें से कुछ के कर्ता के रूप में कुन्दकुन्द (लगभग पांचवीं शती) को स्वीकार किया जा सकता है। दिगम्बर परम्परा में संस्कृत भाषा में रचित 'बारह भक्तियाँ भी मिलती है इन सब भक्तियों के मुख्यतः पंचपरमेष्ठि-तीर्थंकर, सिद्ध, आचार्य, मुनि एवं श्रुत आदि की स्तुतियाँ हैं श्वेताम्बर परम्परा में जिस प्रकार नमोत्युर्ण ( शक्रस्तव), लोगस्स (चतुर्विंशतिस्तव), चैत्यवंदन आदि उपलब्ध हैं, उसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में भी ये भक्तियाँ उपलब्ध हैं। इनके आधार पर ऐसा लगता है कि प्राचीनकाल में जिन प्रतिमाओं के सम्मुख केवल स्तवन आदि करने की परम्परा रही होगी। वैसे मथुरा से प्राप्त कुषाणकालीन पुरातत्त्वीय अवशेषों में कमल के द्वारा जिन प्रतिमा के अर्चन के प्रमाण मिलते हैं, इसकी पुष्टि 'राजप्रश्नीयसूत्र' से भी होती है। यद्यपि भावपूजा के रूप में स्तवन की यह परम्परा जो कि जैन अनुष्ठान विधि का सरलतम एवं प्राचीनरूप है, आज भी निर्विवाद रूप से चली आ रही है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराएँ मुनियों के लिए तो केवल भावपूजा अर्थात् स्तवन का ही विधान करती हैं, द्रव्यपूजा का विधान तो मात्र गृहस्थों के लिए ही है। मथुरा के कुषाणकालीन जैन अंकनों में मुनि को स्तुति करते हुए एवं गृहस्थों को कमलपुष्प से पूजा करते हुए प्रदर्शित किया गया है। यद्यपि पुष्प-जैसे सचित द्रव्य से पूजा करना जैन धर्म के सूक्ष्म अहिंसा सिद्धान्त के प्रतिकूल कहा जा सकता है, किन्तु दूसरी शती से यह प्रचलित रही इससे इंकार नहीं किया जा सकता। पाँचवी शती या उसके बाद के सभी श्वेताम्बर एवं दिगम्बर ग्रन्थों में इसके उल्लेख उपलब्ध हैं। इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा आगे की गई है। द्रव्यपूजा के सम्बन्ध में राजप्रश्नीयसूत्र में वर्णित सूर्याभदेव द्वारा की जाने वाली पूजा-विधि आज भी (श्वेताम्बर परम्परा में) उसी रूप में प्रचलित है। उसमें प्रतिमा के प्रमार्जन, स्नान, अंगप्रोच्छन, गंध विलेपन, अथवा गंध माल्य, वस्त्र आदि के अर्पण के उल्लेख हैं। राजप्रश्नीवसूत्र में उल्लिखित पूजा विधि भी जैन परम्परा में एकदम विकसित नहीं हुई है। स्तवन से चैत्यवंदन और चैत्यवंदन से पुष्प आदि से द्रव्य अर्चा प्रारम्भ हुई। यह सम्भव है कि जिनमन्दिरों और जिनबिम्बों के निर्माण के साथ, ही हिन्दू परम्परा के प्रभाव से जैनों में भी द्रव्यपूजा प्रचलित हुई होगी। फिर क्रमशः पूजा की सामग्री में वृद्धि होती गई और अष्टद्रव्यों से पूजा होने लगी। डॉ० नेमिचन्द शास्त्री के शब्दों में- “पूजन सामग्री के विकास की एक सुनिश्चित परम्परा हमें जैन वाङ्मय में उपलब्ध होती है। आरम्भ में पूजन विधि केवल पुष्पों द्वारा सम्पन्न की Jain Education International जाती थी, फिर क्रमश: धूप, चंदन ओर नैवेद्य आदि पूजा द्रव्यों का विकास हुआ। पद्मपुराण, हरिवंशपुराण एवं जटासिंहनन्दि के वरांगचरित से भी हमारे उक्त कथन का सम्यक् समर्थन होता है। ७ यापनीय परम्परा के ग्रन्थ वरांगचरित' (लगभग छठी-सातवीं शती) में नाना प्रकार के पुष्प, धूप और मनोहारी गंध से भगवान् की पूजा करने का उल्लेख है। ज्ञातव्य है कि इस प्रन्थ में पूजा में वस्त्राभूषण समर्पित करने का उल्लेख भी है। इसी प्रकार दूसरे यापनीय ग्रन्थ पद्मपुराण में उल्लिखित है कि रावण स्नान कर धौतवस्त्र पहन, स्वर्ण और रत्ननिर्मित जिनबिम्बों की नदी के तट पर पूजा करने लगा। उसके द्वारा प्रयुक्त पूजा सामग्री में धूप, चंदन, पुष्प और नैवेद्य का ही उल्लेख आया है, अन्य द्रव्यों का नहीं देखें स्थापयित्वा घनामोदसमाकृष्टमधुव्रतैः धूपैरालेपनैः पुष्पैर्मनोज्ञैर्वहुभक्तिभिः ।।१ अतः स्पष्ट है कि प्रचलित अष्टद्रव्यों द्वारा पूजन करने की प्रथा यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा में श्वेताम्बरों की अपेक्षा कुछ समय के पश्चात् ही प्रचलित हुई होगी। दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम हरिवंशपुराण में जिनसेन ने पूजा सामग्री में चंदन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य का उल्लेख किया है। इस उल्लेख में भी अष्टद्रव्यों का क्रम यथावत् नहीं है और न जल का पृथक् निर्देश ही है। अभिषेक में दुग्ध, इक्षुरस, घृत, दधि एवं जल का निर्देश है, पर पूजन सामग्री में जल का कथन नहीं आया है। स्मरण रहे कि प्रक्षालन की प्रक्रिया का अग्रिम विकास अभिषेक है, जो अपेक्षाकृत परवर्ती है। पूजा के अष्टद्रव्यों का विकास भी शनै: शनै: हुआ है, इस कथन की पुष्टि अमितगति श्रावकाचार से भी होती है, क्योंकि इसमें गंध, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, और अक्षत इन छः द्रव्यों का ही उल्लेख उपलब्ध होता है । वरांगचरित, पद्मपुराण, पद्मनन्दिकृत पंचविंशति, आदिपुराण, हरिवंशपुराण, वसुनन्दिश्रावकाचार आदि ग्रंथों में इन पूजा द्रव्यों का फलादेश भी है। यह माना गया है कि अष्टद्रव्यों द्वारा पूजा करने से ऐहिक और पारलौकिक अभ्युदयों की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार भावसंग्रह में भी अष्टद्रव्यों का पृथक्-पृथक् फलादेश बताया गया है। डॉ० नेमिचन्दजी शास्त्री एवं मेरे द्वारा प्रस्तुत यह विवरण श्वेताम्बर दिगम्बर परम्पराओं में पूजा द्रव्यों के क्रमिक विकास को स्पष्ट कर देता है। श्वेताम्बर परम्परा में पंचोपचारी पूजा से अष्टप्रकारी पूजा और उसी से सर्वोपचारी या सतरहभेदी पूजा विकसित हुई। यह सर्वोपचारी पूजा वैष्णवों की षोडशोपचारपूजा का ही रूप है। बहुत कुछ रूप में इसका उल्लेख राजप्रश्नीय एवं वरांगचरित १० में उपलब्ध है। राजप्रश्नीयसूत्र में वर्णित पूजा विधान · राजप्रश्नीयसूत्र- ११ में सूर्याभदेव द्वारा की गई जिन-पूजा का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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