Book Title: Jain Dharm me Deviyo ka Swarup
Author(s): Pushpendra Sharma
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 1
________________ जैनधर्म में देवियों का स्वरूप डॉ० पुष्पेन्द्र कुमार शर्मा जैनधर्म प्रमुखतया मन्दिरों का धर्म है अर्थात् मन्दिर में उपासना हेतु जाना जैनधर्म का एक प्रमुख अंग है। मन्दिर ही जैनधर्म के संग्रहालय हैं । अतएव भारत में असंख्य जैन-मन्दिर उपलब्ध होते हैं। जैन साधक मूर्तियों को घरों में स्थापित नहीं करते, परन्तु मन्दिरों में ही जाकर पूजा करते हैं । जैन-मन्दिरों में देवताओं, तीर्थङ्करों, देवियों, यक्षों आदि की मूर्तियां स्थापित की जाती हैं। देवताओं की मूर्तिस्थापना सम्भवतः हिन्दूधर्म का प्रभाव हो क्योंकि हम यह देखते हैं कि सारे हिन्दू देवी-देवताओं को जैन-धर्म में स्थान मिला है। जैनधर्म में छठी और सातवीं शताब्दी के उपरान्त देव-समुदाय एक बहुत बड़े स्तर पर विकसित हो चुका था। मूर्तियों की निर्माणविधि, प्रतिष्ठा आदि विषयों पर यथेष्ट मात्रा में ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। पूजित देवताओं में कुछ देवताओं की पूजा केवल श्वेताम्बर सम्प्रदाय या दिगम्बर सम्प्रदाय तक ही सीमित रही है। जैनधर्म में देवियों का भी एक बहुत बड़ा वर्ग उपलब्ध होता है। इनमें से कुछ श्वेताम्बर पन्थ की हैं, उन देवियों के नाम, लक्षण, पूजाविधि भिन्न हैं और कुछ दिगम्बर सम्प्रदाय की देवियाँ हैं जिनकी पूजाविधि, नाम. लक्षण और स्वरूप भिन्न हैं। जैनधर्म के प्राचीन ग्रन्थों में देवियों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया१. प्रासाद देवियाँ-जिन देवियों की मूर्तियाँ मन्दिरों में प्रतिष्ठापित हैं तथा सर्वत्र मिलती हैं। २. कूल देवियाँ-वे तान्त्रिक देवियां जिनको भक्तलोग अपने-अपने कुल देवता के रूप में पूजते हैं एवं जिनकी पूजा गुरु द्वारा प्रदत्त मन्त्रों द्वारा की जाती है । चण्डी, चामुण्डा आदि कुलदेवियां हैं। ३. सम्प्रदाय देवियाँ-किसी सम्प्रदाय की देवियाँ या जाति-विशेष की देवी अम्बा, सरस्वती, गौरी, त्रिपुरा, तारा आदि देवियाँ इस वर्ग में आती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह विभाजन सैद्धान्तिक नहीं है परन्तु इससे यह अवश्य ज्ञात होता है कि तान्त्रिक देवियाँ जैनधर्म में प्रवेश पा गई थी और पूजा की वस्तु थीं। ये तान्त्रिक देवियाँ-काली, चामुण्डा, दुर्गा, ललिता, कुरुकुल्ला, कालरात्रि आदि केवल श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ही प्रचलित रहीं। जैनधर्म में मूर्तिलक्षणों के आधार पर देवियों के तीन वर्ग किये जा सकते हैं१. शासन देवियां-ये देवियाँ जैनधर्म या संघ का पालन करती हैं, भक्तों के विघ्न नाश करती हैं एवं मन्दिरों में में तीर्थंकरों के साथ इनकी मूर्तियाँ मिलती हैं। ये २४ होती हैं। चक्रेश्वरी, अम्बिका आदि इनमें प्रमुख हैं।' २. विद्या देवियाँ–ये विद्या की अधिष्ठात्री देवता हैं। इनकी संख्या सोलह बतलाई गई है। इन्हें श्रुतदेवियाँ भी कहा जाता है। इनमें सरस्वती, काली, ज्वालामालिनी आदि प्रमुख हैं। ३. यक्षिणी देवियाँ-जैनधर्म में यक्षों एवं यक्षिणियों का देव पद स्वीकृत किया गया है। ये अधिकतर धन की देवियाँ हैं। इनमें भद्रकाली, भृकुटी, तारा आदि प्रमुख हैं। १. तत्र देव्यस्त्रिधा प्रासाददेव्यः संप्रदायदेव्यः कुलदेव्यश्च । प्रासाददेव्यः पीठोपपीठेषु गुह्यस्थिता भूमिस्थिता प्रासादस्थिता लिंगरूपा वा स्वयम्भूतरूपा वा मनुष्यनिर्मितरूपा वा । संप्रदायदेव्यः अम्बासरस्वती-त्रिपुराताराप्रभृतयो गुरूपदिष्टमन्त्रो पासनीयाः । कुलदेव्यः चण्डीचामुण्डाकन्टेश्वरीव्याधराजीप्रभृत्तयः । २. या पाति शासनं जैन संघप्रत्यूहनाशिनी। साभिप्रेतसमृद्धयर्थं भूयाच्छासनदेवता॥ -(हेमचन्द्र) बैन इतिहास, कला और संस्कृति १५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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