Book Title: Jain Dharm ka Leshya Siddhant
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ जैन धर्म का लेश्या-सिद्धान्त : एक विमर्श : 161 दृष्टि से अनुचित सुख प्राप्त करना चाहता है। इस प्रकार यहाँ पर भी रास एवं जैन दृष्टिकोण विचार-साम्य रखते हैं। रास के चौथे, पाँचवें और छठे स्तरों की संयुक्त रूप से तुलना जैन दृष्टि की तेजोलेश्या के स्तर के साथ हो सकती है। रास चौथे स्तर में प्राणी की प्रकृति इस प्रकार बताते है कि व्यक्ति सुख तो पाना चाहता है, लेकिन वह उन्हीं सुखों की प्राप्ति का प्रयास करता है जो नैतिक दृष्टि से अनुचित भी नहीं हो, पाँचवें स्तर पर प्राणी नैतिक दृष्टि से उचित सुखों को प्राप्त करना चाहता है तथा छठे स्तर पर वह दूसरों को सुख देने का प्रयास भी करता है। जैन विचारणा के अनुसार भी तेजोलेश्या के स्तर पर प्राणी नैतिक दृष्टि से उचित से उचित सुखों को ही पाने की इच्छा रखता है, साथ-साथ वह दूसरे की सुख-सुविधाओं का भी ध्यान रखता है। रास के सातवें स्तर की तुलना जैन-दृष्टि में पद्मलेश्या से की जा सकती है, क्योंकि दोनों के अनुसार इस स्तर पर व्यक्ति दूसरों के हित का ध्यान रखता है तथा दूसरों के हित के लिए उन सब कार्यों को करने में तत्पर रहता है, जो नैतिक दृष्टि से शुभ हैं। रास के अनुसार मनोभावों के आठवें सर्वोच्च स्तर पर व्यक्ति को मात्र अपने कर्तव्य का बोध रहता है। वह हिताहित की भूमिकाओं से ऊपर उठ जाता है। इसी प्रकार जैन विचारणा के अनुसार भी नैतिकता की इस उच्चतम भूमिका में जिसे शुक्ल लेश्या कहा जाता है, व्यक्ति को समत्व भाव की उपलब्धि हो जाती है, अतः वह स्व और पर भेद से ऊपर उठकर मात्र आत्म-स्वरूप में स्थित रहता है। इस प्रकार हम देखते है कि न केवल जैन, बौद्ध और बृहद् हिन्दू परम्परा वरन् पाश्चात्य विचारक भी इस विषय में एकमत हैं कि व्यक्ति के मनोभावों से उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है। व्यक्ति का आचरण एक ओर उसके मनोभावों का परिचायक है, तो दूसरी ओर उसके नैतिक व्यक्तित्व का निर्माता भी है। मनोभाव एवं तज्जनित आचरण जैसे-जैसे अशुभ से शुभ की ओर बढ़ता है, वैसे-वैसे व्यक्ति में भी परिपक्वता एवं विकास दृष्टिगत होता है। ऐसे शुद्ध, संतुलित, स्थिर एवं परिपक्व व्यक्तित्व का निर्माण जीवन का लक्ष्य है। लेश्या सिद्धान्त का ऐतिहासिक विकासक्रम जहाँ तक लेश्या की अवधारणा के ऐतिहासिक विकास क्रम का प्रश्न है। डॉ० ल्यूमेन और डॉ० हरमन जैकोबी की मान्यता यह है कि आजीवकों की षट्-अभिजातियों की कल्पना से ही जैनों में षट्-लेश्याओं की अवधारणा का विकास हुआ है। षट्-लेश्याओं के नाम आदि की षट्-अभिजातियों के नामों से बहुत कुछ साम्यता को देखकर उनका यह मान लेना अस्वाभाविक तो नहीं कहा जा सकता है फिर भी यदि अभिजाति सिद्धान्त और लेश्या-सिद्धान्त की मूल प्रकृति को देखें तो हमें दोनों में एक अन्तर प्रतीत होता है। अभिजाति का सिद्धान्त धार्मिक विश्वासों और साधनाओं के बाहय आधार पर किया गया व्यक्ति का वर्गीकरण है, जबकि लेश्या का सिद्धान्त मनोवृत्तियों के आधार पर होने वाले मनोदैहिक परिवर्तनों और व्यक्ति के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16