Book Title: Jain Dharm ka Bharatiya Sanskruti me Yogadan Author(s): Balchand Kothari Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf View full book textPage 2
________________ सर्वापदाम् अंतकरम् निरंतम् सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ।। (युक्तयनुशासन श्लोक ६१) जिन आंतरिक गुणों के बल पर जैन धर्म गत तीन चार हजार वर्षों से इस देश के जन जीवन में व्याप्त है वह है जैन धर्म की आध्यात्मिक भूमिका, नैतिक विन्यास एवं व्यावहारिक उपयोगिता और संतुलन । यहाँ प्रकृति के जड़ और चेतन तत्वों की सत्ता को स्वीकार कर चेतन को जड़ से ऊपर उठाने और परमात्मपद प्राप्त कराने की कला का प्रतिपादन किया गया है । विश्व के अनादि अनन्त प्रवाह में जड़ चेतन रूप द्रव्यों के नाना रूपों और गुणों के विकास के लिये किसी एक ईश्वर की इच्छा व अधीनता को स्वीकार नहीं किया गया । जिन अजीव तत्वों के परिणामी नित्यत्व गुण के द्वारा ही समस्त विकार और विकास के मर्म को समझने और समझाने का प्रयत्न किया गया सत्ता स्वयं उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक है और ऐसी सत्ता रखने वाले समस्त द्रव्य गुणपर्याय युक्त हैं। इन्हीं मौलिक सिद्धांतों में जैन दर्शन समस्त पदार्थों के नित्यानित्यस्वरूप अन्तनिहित है। इस जानकारी के अभाव में प्राणी भ्रान्त, भटकते और बंधन में पड़े रहते हैं। इस तथ्य की ओर सच्ची दृष्टि और उसका सच्चा ज्ञान एवं तदनुसार आचरण हो जाने पर कोई पूर्ण स्वातन्त्र्य व बंधन मुक्ति रूप मोक्ष का अधिकारी हो सकता है । यही जैन दर्शनानुसार जीवन का सर्वोच्च ध्येय और लक्ष्य है। व्यावहारिक दृष्टि से विरोध में सामंजस्य, कलह में शांति व जीवन के प्रति आत्मीयता का भाव उत्पन्न होना ही दर्शन, ज्ञान और चारित्र है। जिसकी आनुषंगिक साधनाएं हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहरूप नियम तथा क्षमा, मृदुता आदि गुण । नाना प्रकार के व्रतों और उपवासों, भावनाओं और तपस्याओं, ध्यानों और योगों का उद्देश्य यही विश्वजनीन आत्मवृत्ति प्राप्त करना है। समत्व का बोध और अभ्यास करना ही अनेकांत व स्याद्वाद जैसे सिद्धांतों का साध्य है। जीवन में इस वृत्ति को स्थापित करने के लिये तीर्थंकरों और आचार्यों ने जो उपदेश दिया वह सहस्रों जैन ग्रंथों में ग्रंथित है। ये ग्रंथ नाना प्रदेशों और भिन्न-भिन्न युगों की विविध भाषाओं में लिखे गये। __ अर्ध-मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री और अपभ्रंश प्राकृतों एवं संस्कृत में जैन धर्म का विपुल साहित्य उपलब्ध है - जो अपने भाषा, विषय शैली, व सजावट के गुणों द्वारा अपनी विशेषता रखता है । आधुनिक लोक भाषाओं व उनकी साहित्यिक विधाओं के विकास और समझने के लिये यह साहित्य अद्वितीय, महत्वपूर्ण है। ___साहित्य के अतिरिक्त गुफाओं, स्तूपों, मंदिरों और मूर्तियों तथा चित्रों आदि ललितकला की निर्मितियों द्वारा भी धर्म ने न केवल लोक का आध्यात्मिक व नैतिक स्तर उठाने का प्रयत्न किया है किन्तु समस्त देश के भिन्न भागों के सौन्दर्य से सजाया है । इनके दर्शन से हृदय विशुद्ध और आनन्द विभोर हो जाता है । श्रवणबेलगोला, कारकल, मूडबिद्री वगैरह गांव में जो जैन मंदिरों में भव्य मूर्तियां विराजमान की हैं, राजस्थान में आबू पहाड़ पर दिलवारा जैन मंदिर बनवाये हैं और राणकपुर में जो भव्य मंदिर बने हैं । वे किसी भी देश के लिये बड़े आदर स्थान हैं । मंदिर, मूर्तियाँ और चित्रों द्वारा जो पौराणिक दृश्य बतलाया गया है और हस्तलिखित प्रतियों का जो संग्रह जैनियों ने किया है,इन तमाम कृतियों से जैन धर्म ने स्थापत्य शास्त्र से गौरव प्राप्त किया था और उनसे भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का बहुत बड़ा योगदान हुआ है, इसका प्ता चलता है। राष्ट्रकट राजाओं के शासन काल में श्री वीरसेन, श्री जिनसेन और श्री गुणभद्र आदि आचार्यों ने जो सामदायिक साहित्य निर्माण किया है वह उच्च प्रकार का साहित्य है। श्री वीरसेनाचार्य और श्री जिनसेनाचार्य ने जो साहित्य निर्माण किया है उससे पाया जाता है कि उन्होंने साहित्य की निर्मिति में खुद को समर्पित किया था। वे संयमी थे, सिर्फ एक वक्त ही अल्पाहार करते थे । इन आचार्यों के अतिरिक्त पंडित आशाधरजी, पंडित पुष्पदंत वगैरह महाविद्वान एवं गृहस्थाश्रमी थे तो भी दक्षिण और उत्तर भारत में प्राकृत और संस्कृत भाषा में अति महत्व का साहित्य निर्माण किया है। श्री जिनसेनाचार्य ने पार्वाभ्युदय ग्रन्थ लिखा है, और कालिदास जैसे विख्यात कवि ने मेघदूत लिखा था उसके समान श्री पार्वाभ्युदय यह काव्य है। पार्वाभ्युदय में तेवीसवें तीर्थंकर का जीवन चरित्र और उनके वैरी का, श्री पार्श्वनाथ कर से शत्रुत्व का वर्णन किया है । यह पार्वाभ्युदय काव्य कालिदास के मेघदूत काव्य के श्लोकों का आधार लेकर खण्ड काव्य की रचना है । यह असामान्य विद्वत्ता का लक्षण है । श्री जिनसेनाचार्य के गुरु वीरसेन ने जयधवल ग्रन्थ पर टीका लिखना शुरू किया था, वह उनके जीवन काल में पूर्ण नहीं हो सकी। इस टीका को श्री जिनसेनाचार्य ने पूर्ण किया और उन्होंने महापुराण भी लिखा है पंप, पोन्न, औरण्ण ये तीनों महाकवि कन्नड साहित्य में रत्नत्रय कहलाते हैं । ये तीनों कन्नड़ कवि संस्कृत भाषा में भी अतिनिपुण थे। इन कवियों ने उच्च दर्जे का कन्नड़ साहित्य निर्माण किया है। श्री जिनसेनाचार्य ने महापुराण में जैन लोगों के सामाजिक जीवन का वर्णन किया है और संस्कृत भाषा में जो आदर्श ग्रन्थ हैं उसी नमूने पर यह महापुराण कन्नड़ भाषा में लिखा है। श्री समन्तभद्राचार्य, श्री सिद्धसेनाचार्य और श्री विद्यानंदी आचार्य ये सुप्रसिद्ध ताकिक और न्यायशास्त्र निपुण थे, उन्होंके लिखे हुवे न्यायशास्त्र में उनके काल में जो कुछ मत प्रणालियां थीं उनका दिग्दर्शन किया है। इन आचार्यों ने दक्षिण भारत में कन्नड़ साहित्य निर्माण किया है वह अतिमहत्व का है। जैन ग्रन्थों में अहिंसा सिद्धांत का निरूपण अ-यन्त समपर्क तरीके से किया गया है। अहिंसा धर्म का पालन गृह थाश्रमी अर्थात् संसारी जीवों को पालने के संबंध में मर्यादा बतलाई गई ९८ राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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