Book Title: Jain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication

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Page 10
________________ 5 5 5 5 5 卐के सम्बन्ध में एक व्यापक व उदार दृष्टि प्रस्तुत की है जेण सुहप्प्ज्झयणं अज्ाप्पाणयणमहियमयणं वा। बोहस्स संजमस्स व मोक्खस्स वजंतमज्झयणं॥ (विशेषावश्यक भाष्य- 958) अर्थात् (यथार्थ) अध्ययन (स्वाध्याय) वह है जिससे चित्त निर्मल हो, अथवा जो चित्त-वृत्ति को अध्यात्म में नियोजित, करे, तथा जिससे सज्ज्ञान, संयम व मोक्ष की प्राप्ति होती हो। तात्पर्य यह है कि संयम-साधना व मोक्ष-साधना के अलावा, सज्ज्ञान की प्राप्ति हेतु किया गया स्वाध्याय ही यथार्थतः स्वाध्याय है। स्पष्ट है कि उक्त अध्ययन जैन ग्रन्थों का भी हो सकता है और जैनेतर ग्रन्थों का भी, बशर्ते सज्ज्ञान प्राप्त हो। 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 सर्वमान्य 'सत्य' के अन्वेषण की प्रेरणा: । जैनेतर शास्त्रों के अध्ययन को जैन परम्परा ने समर्थन तो दिया, किन्तु शर्त के साथ। शर्त यह थी कि समीचीन दृष्टि रख कर ही अध्ययन-मनन-अनुसन्धान किया जाय।समीचीन दृष्टि से तात्पर्य है कि सत्य को, मात्र सर्वमान्य तथ्य को, तटस्थ प्रभाव से ग्रहण करने की दृष्टि। यह दृष्टि तभी सम्भव है, जब हम.. विभिन्न धर्मों में, परम्पराओं में जो सर्वमान्य तथ्य हैं, जो साम्यसूत्र हैं, उसे ग्रहण करने की भावना रखें। इस दृष्टि के सद्भाव में, किसी भावी विवाद या विरोध की सम्भावना नहीं रहती, अपितु ॐ परस्पर-समन्वय का स्वस्थ वातावरण ही निर्मित होता है। इसीलिए ॐ स्वाध्याय का उद्देश्य यह होना चाहिए कि उन सर्वमान्य नैतिक + मूल्यों, आदर्शों, सांस्कृतिक मूल सिद्धान्तों को रेखांकित किया जाय जो सर्वमान्य 'अहिंसा धर्म' को परिपुष्ट करने वाले हों। ऐसी कही समीचीन दृष्टि रखकर आचार्य सिद्धसेन ने समस्त शास्त्रों का 5 5 55 5 5 F 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5

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