Book Title: Jain Dharm Prachinta ka Gaurav aur Navinta ki Asha Author(s): Satyabhakta Swami Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf View full book textPage 3
________________ ८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड से उनकी समकक्षता मानी गई। पर सापेक्षतावाद ने इस पक्ष में पर्याप्त चिन्तन दिशा बदल दी है। फिर भी, तत्कालीन युग में महावीर की यह मान्यता उनकी मौलिक और असाधारण देन थी। जैन धर्म में सर्वज्ञता की बड़ी मान्यता है । मैंने पाया है कि इस शब्द के चार अर्थ दिये गये हैं : (१) 'जे एग जाणइ, ते सब्बं जाणइ' के अनुसार जो आत्मा को जानता है, वह सबको जानता है। आत्मदर्शी सर्वज्ञ होता है। जैन शास्त्रों में ऐसी कथायें हैं कि एक साधारण ज्ञानी भी थोड़े ही समय में अहंत हो गया । यहाँ अर्हत की सर्वज्ञता आत्मज्ञता ही है । वस्तुतः यही व्यापक दृष्टि है । (२) सोमदेव ने 'लोकव्यवहारज्ञो हि सर्वज्ञः' कहा है। इसके अनुसार, युग की महत्वपूर्ण समस्याओं के समाधान का स्पष्ट और व्यापक ज्ञान ही सर्वज्ञता है । यह अर्थ वास्तविक, व्यावहारिक एवं युग-प्रचलित है । इन्द्रभूति आदि महावीर से वादविवाद करते समय इन्हीं शब्दों में सोचते हैं कि हम सर्वज्ञ हैं या महावीर ? इस दृष्टि से महावीर सचमुच सर्वज्ञ थे । (३) सर्वज्ञता का एक अन्य अर्थ है । विश्व की किसी भी वस्तु या घटना के ज्ञान की क्षमता । न्याय-वैशेषिक ऐसे ज्ञानी को युंजान योगी कहते हैं । सर्वज्ञता का यह अलौकिक अर्थ है । अधिकांश पौराणिक घटनाओं में यही अर्थ प्रचलित रहा है। ऐसे सर्वज्ञ होने का दावा महावीर को भी कभी-कभी करना पड़ता था। परलोक और पूर्वजन्म पर विश्वास कराने के लिये यह आवश्यक था। एक बार उनसे दीक्षिन साधू संघस्थ हो अपने नगर में आया। मिक्षा की अनुमति देते समय महावीर ने उससे कहा, "आज तुम्हें अपने मां के हाथ से भिक्षा मिलेगी।" पर उसकी मां तो उसे पहचान तक न सकी, भिक्षा की तो बात ही क्या ? मार्ग में एक ग्वालन ने उसे मिक्षा दी। उसका विवरण सुनकर और अपने ऊपर अविश्वास के संकट को देखते हुए महावीर ने उससे कहा, "ग्वालिन पूर्वजन्म में तुम्हारी मां ही थी।" जगत् कल्याण के लिये कभी कभी महावीर को ऐसा अतथ्य-सत्य कहना पड़ता था। इससे सत्य-व्रत भंग नहीं होता, क्योंकि इसमें असंयम नहीं है। सत्य महाव्रती तो छठे गुणस्थान में हो जाता है। पर असत्य मनोयोग और वचन योग बारहवें ( या तेरहवें ? ) गुणस्थान तक रहते हैं। इससे यह ध्वनित होता है कि असत्य वचन योग से सत्य महाव्रत भंग नहीं होता। (४) सर्वज्ञता की चौथी परिभाषा सर्वकाल एवं सर्वलोक की सभी पर्यायों के युगपत् प्रत्यक्ष के रूप में मानी जाती है। यह परम अलौकिक परिभाषा है और मुझे असंभव लगती है। मेरा सुझाव है कि वैज्ञानिक युग के दृष्टिकोण से प्रारम्भ की दो परिभाषायें तथ्यपूर्ण, तर्कसंगत एवं सत्य के रूप में स्वीकार करनी चाहिये । कुछ जैन मान्यताओं की समीक्षा जैन ग्रन्थों में वर्णित विश्व रचना आज की आठ हजार मील व्यास की गोल पृथ्वी की मान्यता से असंगत लगती है। इस पृथ्वी पर लाखों करोड़ों मील के द्वीप-समुद्र की बात हास्यास्पद है। जैन लोग इस बात की चर्चा में बगले झांकने लगते हैं। पर इस असमंजस में रहने की जरूरत नहीं है। हमें निर्भयता से साफ शब्दों में कहना चाहिये कि ये भौतिक विवरण धर्मशास्त्र के अंग नहीं हैं। धर्म तो 'चारित्तं खलु धम्मो' है। विश्व रचना तो केवल कर्मफल जताने के लिये उदाहरण है। तत्वार्थ श्रद्धान सम्यक् दर्शन है। जब विश्व रचना का विवेचन तत्वरूप नहीं है, तो वह क्या सच्चा या क्या झूठा ? इस विवरण से धर्म का खंडन नहीं होता। सत्य बोलना तो तब भी धर्म है, जब पृथ्वी चपटी है और तब भी धर्म है, जब पृथ्वी गोल है। दूसरे, भूगोल-खगोल सम्बन्धी मान्यताओं को ऐतिहासिक सन्दर्भ में लेमा चाहिये, धार्मिक सन्दर्भ में नहीं। ऐसी स्थिति में आज की मान्यताओं के आलोक में उनकी समोचीनता परखी जा सकती है और वैज्ञानिक प्रगति को मूल्यांकित किया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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