Book Title: Jain Dharm Jain Darshan tatha Shraman Sanskruti
Author(s): Lakshmi Narayan Dubey
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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________________ जैन धर्म, जैन-दर्शन तथा श्रमण संस्कृति -डॉ. लक्ष्मीनारायण दुबे जैन धर्म की गणना संसार के प्रमुख, प्रभावपूर्ण एवं प्रतिष्ठित धर्मों में की जाती है। जैन धर्म और जैन समाज ने एक स्वस्थ तथा प्रौढ़ आचारसंहिता का निर्माण किया है जिसे हम श्रमण-संस्कृति के नाम से अभिहित करते हैं। इस संस्कृति के विश्व की संस्कृति को अनेक मौलिक तथा अभिनव प्रदेय हैं जो कि आज की मानवता के लिए अत्यन्त उपादेय, महनीय एवं तुष्टिदायक हैं। वास्तव में जैन धर्म हिन्दू धर्म के व्यापकत्व में समाहित हो सकता है और इस धर्म एवं संस्कृति का निरीक्षण-परीक्षणमूल्यांकन एक विशाल, विस्तीर्ण एवं उदार मान्यताओं से संपृक्त होना चाहिए । जो महासागर है उसे महासागर की ही दृष्टि से निरखापरखा जाना चाहिए और उसे किसी भी प्रकार सरोवर की संकीर्णता में आबद्ध अथवा सीमित नहीं किया जाना चाहिए। जब कोई धर्म अथवा संस्कृति सम्प्रदाय या सीमाओं में परिमित होने लगता है तो उसके उन्मुक्त विकास एवं परिपक्व पुरोगति में अवरोध उत्पन्न होने लगता है और वह अनेक प्रकार की विषमताओं तथा विचारों से गलित होने लगता है। यही दृष्टि प्रगतिशीलता की जननी है। कतिपय विद्वानों का ऐसा अभिमत है कि जैन धर्म अनादि काल से भारत में प्रचलित है। विश्व के प्राचीन धर्मों में जैन धर्म का भी स्थान है। कुछ पंडितों का मत है कि संसार का आदिम मानव जैन ही था परन्तु इस दिशा में मत-मतान्तर मिलते हैं। जैन धर्म के आदिम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव स्वामी हैं। भारत तथा आर्य-संस्कृति के आदि एवं मूल ग्रन्थ ऋग्वेद तथा यजुर्वेद में ऋषभदेव तथा नेमिनाथ के नाम आते हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि द्रविड़ जाति की भी कोई प्रशाखा जैन धर्मावलम्बिनी रही है । जन-संस्कृति के इतिहासविदों की यह सम्मति है कि सिन्धु सभ्यता के प्राचीन एवं महान् ध्वंसावशेष मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा के पुरातत्वीय उत्खननों से भी जैन धर्म की पुरातनता प्रमाणित होती है । भगवान् पार्श्वनाथ तथा तीर्थंकर महावीर स्वामी को जैन धर्म के अन्तिम तीर्थकरों के रूप में ग्रहण किया गया है। भगवान् महावीर स्वामी अत्यन्त लोकप्रिय तीर्थकर हुए और भारतीय इतिहास एवं संस्कृति में उनको एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। भारतीय इतिहास ने उनको विशिष्ट रूप में अपने कोड़ में सुशोभित किया है। उन्होंने जंन धर्म को लोकधर्म तथा श्रमण-संस्कृति को जैन-संस्कृति के रूप में प्रतिष्ठित किया और जैन-दर्शन को कतिपय नवीन सूत्र तथा तत्त्व प्रदान किए। जैन-दर्शन और श्रमण संस्कृति अतीव गरिमा-मंडित, वैचारिक एवं श्रेष्ठ सैद्धान्तिक-व्यावहारिक भित्ति पर स्थित है। जैन-संस्कृति को वैदिक-संस्कृति के विरुद्ध एक क्रान्ति के रूप में निरूपित, प्रतिपादित किया जाता है। भारतीय संस्कृति में जो चार महान् क्रान्तियां हुई, उनमें जैन-बौद्ध धर्म के उद्भव को क्रान्ति के रूप में मान्यता प्राप्त है। यह द्वितीय क्रान्ति थी। वैदिक धर्म और जैन धर्म में आधारभूत अन्तर यह है कि जहां वैदिक संस्कृति संसार को सादि तथा सान्त के रूप में मानती है वहां जैन या श्रमण संस्कृति संसार को अनादि तथा अनन्त के रूप में स्वीकार करती है। वस्तुतः जैन धर्म, जैन दर्शन और श्रमण संस्कृति के तीन प्रधान और महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त अथवा तत्त्व हैं-अहिंसा, तपस्या और अनेकान्तवाद । ये त्रिपुरी हैं और इसी त्रिवेणी पर श्रमण-संस्कृति रूपी तीर्थराज प्रयाग बसा हुआ है। उपरिलिखित तीन सिद्धान्तों में ही जैन दर्शन का नवीनतम निष्कर्ष अनुस्यूत है। इन तीन तत्त्वों में ही अन्य सिद्धान्तों को परिगणित किया जा सकता है। श्रमण संस्कृति का मूल मंत्र है कि प्राणीमात्र के प्रति समता और विश्व के समस्त जीवों के प्रति दया-समवेदना-सहानुभूति की भावना-कामना का अधिकाधिक प्रसरण-क्रियान्वयन हो। भारतीय संस्कृति के समान श्रमण-संस्कृति में भी भौतिक तत्त्व की अपेक्षा जैन इतिहास, कला और संस्कृति . १०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only -www.jainelibrary.org

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