Book Title: Jain Dharm Darshan ka Sartattva
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf

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Page 11
________________ प्रो. सागरमल जैन उपलब्ध है। किन्तु इस सबके मूल में अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह की साधना ही मुख्य है । जैनधर्म के केन्द्रीय तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह जैनधर्म में सम्यक् चारित्र की दृष्टि से अहिंसा और अनासक्ति ये दो केन्द्रीय सिद्धान्त हैं । वैचारिक क्षेत्र में अहिंसा और अनासक्ति मिलकर अनाग्रह या अनेकान्तवाद को जन्म देते है । आग्रह वैचारिक आसक्ति है और एकान्त वैचारिक हिंसा । अनासक्ति का सिद्धान्त ही अहिंसा से समन्वित हो सामाजिक जीवन में अपरिग्रह का आदेश प्रस्तुत करता है । संग्रह वैयक्तिक जीवन के सन्दर्भ में आसक्ति और सामाजिक जीवन के सन्दर्भ में हिंसा है । इस प्रकार जैनदर्शन सामाजिक नैतिकता के तीन केन्द्रीय सिद्धान्त प्रस्तुत करता है: - १. अहिंसा, २. अनाग्रह ( वैचारिक सहिष्णुता ) और ३ अपरिग्रह (असंग्रह ) | सम्यक् आचरण एक प्रकार से जीवन शुद्धि का प्रयास है, अतः मानसिक कर्मों की शुद्धि के लिए अनासक्ति ( अपरिग्रह ), वाचिक कर्मों की शुद्धि के लिए अनेकान्त ( अनाग्रह ) और कायिक कर्मों की शुद्धि के लिए अहिंसा के पालन का निर्देश किया गया है। जैनदर्शन का सार इन्हीं तीन सिद्धान्तों में निहित है। जैनधर्म की परिभाषा करने वाला यह श्लोक सर्वाधिक प्रचलित ही है- 11 स्याद्वादो वर्ततेऽस्मिन् पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्यं पीड़नं किंचित जैनधर्मः स उच्यते ।। सच्चा जैन वही है जो पक्षपात (समत्व) से रहित है, अनाग्रही और अहिंसक है। अहिंसा अहिंसा जैन आचार-दर्शन का प्राण है। अहिंसा वह धुरी है जिस पर समग्र जैन आचार - विधि घूमती है। जैनागमों में अहिंसा को भगवती कहा गया है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, तृषितों को जैसे जल, भूखों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को जैसे औषध और वन में जैसे सार्थवाह का साथ आधारभूत है, वैसे ही अहिंसा प्राणियों के लिए आधारभूत है। अहिंसा सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है। वह शाश्वत धर्म है, जिसका उपदेश तीर्थंकर करते हैं। आचारांगसूत्र में कहा गया है भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी अर्हत् यह उपदेश करते हैं कि किसी भी प्राण, पूत, जीव और सत्त्व को किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए, न किसी का हनन करना चाहिए। यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है । समस्त लोक की पीड़ा को जानकर अर्हतों ने इसका प्रतिपादन किया है। सूत्रकृतांगसूत्र के अनुसार ज्ञानी होने का सार यह है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । अहिंसा ही समग्र धर्म का सार है, इसे सदैव स्मरण रखना चाहिए। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि सभी प्राणियों के हित साधन में अहिंसा के सर्वश्रेष्ठ होने से महावीर ने इसको प्रथम स्थान दिया है। अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है। -- आचारांग में अहिंसा के सिद्धान्त को मनोवैज्ञानिक आधार पर स्थापित करने का प्रयास किया गया है। वह कहता है कि सभी प्राणियों में जिजीविपा प्रधान है, पुनः सभी को सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है अहिंसा का अधिष्ठान यही मनोवैज्ञानिक सत्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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