Book Title: Jain Dharm Bharatiyo ki Drusti me
Author(s): Prabhavanand Swami
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

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Page 1
________________ जैन धर्म : भारतीयों की दृष्टि में (अ) भारत की आध्यात्मिक विरासत स्वामी प्रभवानंद (अनु०) ग० करुणा जैन, बम्बई जैन और जैनधर्म शब्द संस्कृत की 'जि' ( जीतना) धातु से व्युत्पन्न है । जैन वह है जो अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य प्रदान करने वाली परम विशुद्धता की प्राप्ति में बाधक तत्वों को जीतने में विश्वास करता है । यही तो भारत के अन्य धर्मों की शिक्षा है । यह कहा जाता है कि जैनधर्म वैदिक धर्म के समान ही प्राचीन है । इस युग में वर्धमान महावीर ( परम आध्यात्मिक गुरु ) का नाम जैनधर्म के साथ एकीकृत हो गया है। लेकिन ये जैनों के चौबीस तीर्थंकरों को श्रेणी के अन्तिम महापुरुष थे। महावीर और बुद्ध की समकालीनता तथा अहिंसा सिद्धान्त के महत्व के कारण प्रारंभ में पाश्चात्य विद्वानों की यह धारणा थी कि जैनधर्म बुद्धधर्म की शाखा है। लेकिन वास्तव में ये दोनों धर्म भिन्न-भिन्न है तथा इनका विकास समानान्तर रूप में हुआ है । महावीर इस धर्म के संस्थापक नहीं है, वे ( वर्तमान ) चौबीसी में अंतिम थे । उनके दो सौ वर्ष तीर्थंकर पार्वनाथ हुए हैं । ये भी ऐतिहासिक महापुरुष हैं। परंपरा के अनुसार, जैनधर्म अनादि है। इसके सिद्धान्तों का क्रमिक उद्घाटन तीथंकरों ने किया था। इसका ब्रह्मांड विज्ञान अन्य भारतीय विचारधाराओं के समानान्तर है क्योंकि वह प्रगति ( उत्सर्पिणी ) और अवनति (अवसर्पिणी) के ब्रह्मांडी चक्रों की श्रेणी मानता है। वर्तमान युग अवसर्पिणी चक्र में चल रहा है। इस अवसर्पिणो चक्र में चौबीस तीर्थकर समय-समय पर अवतरित हुए है । इनमें भगवान् ऋषभ प्रथम थे और महावीर अंतिम थे । फलतः इस अवसर्पिणीकाल में ऋषभ जैनधर्म के प्रथम उद्घाटक थे । इनका नाम ऋग्वेद में आता है । इनको कहानी विष्णु और भागवत पुराणों में कही गई है । इन ग्रन्थों में इन्हें महासन्त बताया गया है । इनके अन्तिम तीर्थंकर महावीर का जन्म ईसापूर्व छठवीं सदी के उत्तरार्ध में ( आधुनिक ) पटना से ३२ किमी० दूर वैशाली के पास बसाढ़ गाँव में हुआ था। इनके माता-पिता क्षत्रिय थे। उनका विवाह हुआ था और उनको एक पुत्री थी। बचपन से ही वे जिज्ञासु और विचारमग्न रहते थे। अट्ठाईस वर्ष की उम्र में उन्होंने संसार त्याग दिया। बारह वर्ष कठोर तपस्या और ध्यान के उपरान्त उन्हें पूर्ण ज्ञान (केवल) प्राप्त हुआ। उन्होंने जैन सिद्धान्तों का तीस वर्ष तक प्रचार किया और अन्त में निर्वाण प्राप्त किया। महावीर की जीवनी बुद्ध के समान है। यह किसी भी धर्म के प्रचार के लिये आवश्यक व्यक्तिवादी तत्व जैन धर्म के लिए भी प्रस्तुत करती है। महावीर ने अहिंसा के सिद्धान्त को लोकप्रिय बनाया। इससे जैन धर्म के प्रचार में बड़ा योगदान मिला। उन्होंने समाज को गृहस्थ और साधुओं की दो श्रेणियों में विभाजित किया । अन्त में उन्होंने अपने धर्म के द्वार, जाति या लिंग के विचार के बिना, सभी लोगों के लिए खोल दिये । ' स्वामी प्रभवानन्द, स्थिरिचुअल हेरीटेज आव इण्डिया, रामकृष्ण मठ, मद्रास-४, १९७३ पेज १५५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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