Book Title: Jain Darshan me Vastuk Swarup Ek Darshnik Vishleshan
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf

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Page 3
________________ ६४ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्वन-ग्रन्थ आधारपर ही जैनदर्शनमें यह सिद्धान्त मान्य किया गया है कि जो ही वस्तु वह है वही वस्तु यह नहीं है। उपर्युक्त कथनका तात्पर्य यह है कि विश्वमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामसे छह प्रकारकी वस्तुएँ विद्यमान हैं। इनमें जीव नामकी वस्तुएँ अनन्तानन्त है, पुद्गल नामकी वस्तुएँ भी अनन्तानन्त हैं । धर्म, अधर्म और आकाश नामकी वस्तुएँ एक, एक हैं तथा काल नामकी वस्तुएँ असंख्यात हैं। ये सब वस्तुएं अपनी-अपनी पृथक्-पृथक् आकृति प्रकृति और विकृतिको धारण करके ही लोकमें रह रही हैं । जीव नामक वस्तु कभी पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालकी आकृति, प्रकृति और विकृतिको धारण नहीं करती है। पुद्गल नामकी वस्तु कभी जीव, धर्म, अधर्म आकाश और कालकी आकृति प्रकृति और विकृतिको धारण नहीं करती है और यही बात धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामकी वस्तुओंमें भी समझना चाहिए। इतना ही नहीं, एक जीवनामक वस्तु कभी दुसरी जीवनामक वस्तुकी आकृति, प्रकृति और विकृतिको धारण नहीं करती है व एक पुद्गलनामक वस्तु भी कभी दूसरी पुद्गलनामक वस्तुकी आकृति प्रकृति और विकृतिको धारण नहीं करती है यहाँ तक कि जीव और पुद्गलका तथा दो आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त पुद्गलोंका परस्पर मेल (मिश्रण) होनेपर भी ये कभी एकत्वको प्राप्त नहीं होते हैं। यह बात दूसरी है कि उक्त वस्तुओंके परस्पर संयोग अथवा मिश्रणसे एक दूसरे में परिणमन अवश्य हुआ' करते हैं । लेकिन वे भी परिणमन उनके अपने-अपने रूप ही हुआ करते हैं। कभी एक- दूसरे रूप नहीं होते "जो ही वह है वहीं वह नहीं है" इस सिद्धान्तकी मान्यताका ही यह परिणाम है कि आचार्य कुन्दकुन्दने समयसारग्रन्थके कर्तु कर्माधिकार प्रकरणमें निम्नलिखित गाथाओं द्वारा आत्मा और पुद्गलमें पररूप परिणतियोंका निषेध किया है "णवि परिणमइ ण गिन्हइ उप्पज्जद ण परदब्बपज्जाए । णाणी जाणतो वि हु पुगलकम्मं अणेयविहं ॥७६॥ गवि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदब्बपज्जाए । गाणी जाणतो वि ह सगपरिणार्म हु अहिं ॥७७॥ ण वि परिणमदि ण गिण्हृदि उप्पज्जदि ण परदब्बपज्जाए । णाणी जाणतो वि हु पुग्गलकम्मफलमणंत ॥७८॥ वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदब्बपज्जाए । पुग्गल पि तहा परिणमइ सएहि भावेहि ।।७९।। " इन गाथाओंका भाव यह है कि आत्मा पुद्गल कर्मको, अपने परिणामको और पुद्गल कर्म के फलको जाता हुआ भी परद्रव्यकी पर्यायरूपसे न परिणमन करता है, न उन्हें स्वीकार करता है और न उनमें उत्पन्न होता है। इसी प्रकार पुद्गल प्रभ्य भी जीवपरिणामको, अपने परिणामको और अपने परिणामके फलको नहीं जानता हुआ भी परद्रव्यकी पर्याय रूपसे न परिणमन करता है, न उन्हें स्वीकार करता है और उनमें उत्पन्न होता है। इसी तरह "जो ही वह है वही वह नहीं है" इस सिद्धान्तको लक्ष्य में रखकर ही आचार्य श्री कुन्दकुन्दने समयसारके कर्तुं कर्माधिकार प्रकरणको निम्नलिखित गाथाका प्रणयन किया है--- "जो जह्मि गुणे दब्बे सो अण्णणि संकमदि दब्बे । " (गाया १०३ का पूर्वाद्धं) इसकी टीका आचार्य श्री अमृतचन्द्रने निम्न प्रकारकी है- 'दह किल यो यावान् कश्चित् वस्तु विशेषी यस्मिन् यावति कस्मिश्चिच्चिदात्मनि अचिदात्मनि वा १. समयसार गाथा ८० | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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