Book Title: Jain Darshan me Swatantrya Bodh Author(s): Narendra Bhanavat Publisher: Z_Nanchandji_Maharaj_Janma_Shatabdi_Smruti_Granth_012031.pdf View full book textPage 3
________________ પંડ્ય ગુરૂદેવ કવિયત્ર પં. નાનચન્દ્રજી મહારાજ જન્મશતાબ્દિ સ્મૃતિગ્રંથ परमात्म शक्ति की कृपा पर निर्भर है और न उससे भिन्न है। जब वह यह महसूस करती है कि मेरा सुख-दुख किसी दूसरे के अधीन है, किसी की कृपा और क्रोध पर वह अवलम्बित है, तब चाहे वह किसी भी गणराज्य में, किसी भी स्वाधीन शासन प्रणाली में विचरण करे, वह परतन्त्र है। यह परतन्त्रता आत्मा से परे किसी अन्य को अपने भाग्य का नियन्ता मान लेने पर बनी रहती है। अतः महावीर ने कहा-ईश्वर आत्मा से परे कोई अलग शक्ति नहीं है। आत्मा जब जागरुक होकर अपने कर्ममल को सर्वथा नष्ट कर देती है, अपने में निहित अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र और अनन्त बल का साक्षात्कार कर लेती है, तब वह स्वयं परमात्मा बन जाती है। परमात्म दशा प्राप्त कर लेने पर भी वह किसी परम शक्ति में मिल नहीं जाती वरन् अपना स्वतन्त्र अस्तित्व अलग बनाये रखती है। इस प्रकार अस्तित्व की दृष्टि से जैन दर्शन में एक परमात्मा के स्थान पर अनेक व अनन्त परमात्मा की मान्यता है पर गुण की दृष्टि से सभी परमात्मा अनन्त चतुष्टय की समान शक्ति से सम्पन्न है। उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति में व्यक्ति, स्वातन्त्र्य और समूहगत गुणात्मकता का यह सामंजस्य जैन दर्शन की एक विशिष्ट और मौलिक देन है। परमात्मा बनने की इस प्रक्रिया में उसकी अपनी साधना और उसका पुरुषार्थ ही मूलतः काम आता है। इस प्रकार ईश्वर निर्भरता से मुक्त कर जैन दर्शन ने लोगों को आत्म-निर्भरता को शिक्षा दो। - कुछ लोगों का कहना है कि जैन दर्शन द्वारा प्रस्थापित आत्मनिर्भरता का सिद्धान्त स्वतन्त्रता का पूरी तरह से अनुभव नहीं कराता, क्योंकि वह एक प्रकार से आत्मा को कर्माधीन बना देता है। पर सच बात तो यह है कि जैन दर्शन की यह कर्माधीनता भाग्य द्वारा नियन्त्रित न होकर पुरुषार्थ द्वारा संचालित है। महावीर स्पष्ट कहते हैं - हे आत्मन् ! तू स्वयं ही अपना निग्रह कर । ऐसा करने से तू दुखों से मुक्त हो जायगा।' यह सही है कि आत्मा अपने कृत कर्मों को भोगने के लिये बाध्य है पर वह उतनी बाध्य नहीं कि वह उसमें परिवर्तन न ला सके। महावीर की दृष्टि में आत्मा को कर्म बंध में जितनी स्वतंत्रता है, उतनी ही स्वतंत्रता उसे कर्मफल के भोगने की भी है। आत्मा अपने पुरुषार्थ के बल पर कर्मफल में परिवर्तन ला सकती है। इस सम्बन्ध में भगवान महावीर के कर्म-परिवर्तन के निम्न लिखित चार सिद्धान्त विशेष महत्त्वपूर्ण हैं : (१) उदीरणा : नियत अवधि से पहले कर्म का उदय में आना। (२) उद्वर्तन : कर्म की अवधि और फल देने की शक्ति में अभिवृद्धि होना। (३) अपवर्तन : कर्म की अवधि और फल देने की शक्ति में कमी होना। (४) संक्रमण : एक कर्म प्रकृति का दूसरी कर्म प्रकृति में संक्रमण होना। उक्त सिद्धान्त के आधार पर भगवान् महावीर ने प्रतिपादित किया कि मनुष्य अपने पुरुषार्थ के बल से बंधे हुए कर्मों की अवधि को घटा-वढा सकता है और कर्मफल की शक्ति को मन्द अथवा तीव्र कर सकता है। इस प्रकार नियत अवधि से पहले कर्म भोगे जा सकते हैं और तीव्र फल वाला कर्म मन्द फल वाले कर्म के रूप में तथा मन्द फल वाला कर्म तीव्र फल वाले कर्म के रूप में बदला जा सकता है। यही नहीं, पुण्य कर्म के परमाणु को पाप के रूप में और पाप कर्म के परमाणु को पुण्य के रूप में संक्रान्त करने की क्षमता भी मनुष्य के स्वयं के पुरुषार्थ में है। निष्कर्ष यह है कि महावीर मनुष्य को इस बात की स्वतंत्रता देते हैं कि यदि वह जागरुक है, अपने पुरुषार्थ के प्रति सजग है और विवेकपूर्वक अप्रमत्त भाव से अपने कार्य सम्पादित करता है, तो वह कर्म की, अधीनता से मुक्त हो सकता है, परमात्म दशा अर्थात् पूर्ण स्वतंत्रता को प्राप्त कर सकता है। महावीर ने अपने इस आत्म स्वातंत्र्य को मात्र मनुष्य तक सीमित नहीं रक्खा। उन्होंने प्राणी मात्र को यह स्वतंत्रता प्रदान की। अपने अहिंसा सिद्धान्त के निरुपण में उन्होंने स्पष्ट कहा कि प्रमत्त योग द्वारा किसी के प्राणों को क्षति पहुंचाना या उस १- पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिनिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खऽसि -आचारांग ३।३।११९ ३७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only तत्त्व दर्शन www.jainelibrary.orgPage Navigation
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