Book Title: Jain Darshan me Saptatattva aur Shatdravya Author(s): Bansidhar Pandit Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf View full book textPage 5
________________ ७२ : सरस्वती वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनभ्वन-ग्रन्थ स्वर्गादिके अस्तित्वको न मानने वाला व्यक्ति अच्छे कृत्य कर ही नहीं सकता है, यह बात कोई भी विवेकी व्यक्ति मानने को तैयार न होगा, कारणकि हम पहले बतला आये हैं कि मनुष्यका जीवन परस्परकी सद्भावना, सहानुभूति और सहायताके आधारपर हो सुखी हो सकता है। यदि एक मनुष्यको अपना जीवन सुखी बनाने के लिये सम्पूर्ण साधन उपलब्ध हैं और दूसरा उसका पड़ौसी मनुष्य चार दिनसे भूखा पड़ा हुआ है तो ऐसी हालत में या तो पहिले व्यक्तिको दूसरे व्यक्तिके बारेमें सहायताके रूपमें अपना कोई न कोई कर्त्तव्य निश्चित करना होगा, अन्यथा नियमसे दूसरा व्यक्ति पहिले व्यक्तिके सुखी जीवनको ठेस पहुँचानेका निमित्त बन जायेगा | तात्पर्य यह है कि हमें परलोककी मान्यतासे अच्छे कृत्य करनेकी जितनी प्रेरणा मिल सकती है उससे भी कहीं अधिक प्रेरणा वर्तमान जीवनको सुखी बनानेकी आकांक्षासे मिलती है, चार्वाकदर्शनका अभिप्राय इतना ही है । बौद्धों क्षणिकवाद और ईश्वरकर्तृत्ववादियोंके ईश्वरकर्तृत्ववादमें भी यही उपयोगितावादका रहस्य छिपा हुआ है । बौद्धदर्शनमें एक वाक्य पाया जाता है— '' वस्तुनि क्षणिकत्वपरिकल्पना आत्मबुद्धिनिरासार्थम्” अर्थात् पदार्थोंमें जगत्के प्राणियोंके अनुचित राग, द्वेष और मोहको रोकने के लिये ही बौद्धोंने पदार्थोंकी अस्थिरताका सिद्धान्त स्वीकार किया है। इसी प्रकार जगत्का कर्ता अनादि-निधन एक ईश्वरको मान लेनेसे संसार के बहुजन समाजको अपने जीवनके सुधारमें काफी प्रेरणा मिल सकती है । तात्पर्य यह है कि एक व्यक्ति पदार्थोंकी क्षणभंगुरता स्वीकार करके उनसे विरक्त होकर यदि आत्मकल्याणकी खोज कर सकता है और दूसरा व्यक्ति ईश्वरको कर्ता-धर्ता मान करके उसके भयसे यदि अनर्थोंसे बच सकता है तो इस तरह उन दोनों व्यक्तियोंके लिये क्षणिकत्ववाद और ईश्वरकर्तृत्ववाद दोनोंकी उपयोगिता स्वयं सिद्ध हो जाती है । इसलिये इन दोनों मान्यताओंके औचित्यके बारेमें " पदार्थ क्षणिक हो सकता है या नहीं ? जगत्का कर्ता ईश्वर है या नहीं ?" इत्यादि प्रश्नोंके आधारपर विचार न करके "क्षणिकत्ववाद अथवा ईश्वरकर्तृत्ववाद लोककल्याणके लिये उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं या नहीं ?" इत्यादि प्रश्नोंके आधारपर ही विचार करना चाहिये । सांख्य और वेदान्तदर्शनोंकी पदार्थ मान्यतामें उपयोगितावादको स्पष्ट झलक दिखाई देती है, इसका स्पष्टीकरण 'षद्रव्यमान्यताके' प्रकरणमें किया जायगा । मीमांसादर्शनका भी आधार मनुष्योंको स्वर्ग प्राप्तिके उद्देश्यसे यागादि कार्योंमें प्रवृत्त कराने रूप उपयोगितावाद हो है तथा जैनदर्शन में तो उपयोगितावादके आधारपर सप्ततत्वमान्यता और अस्तित्ववादके आधारपर षड् द्रव्यमान्यता इस प्रकार पदार्थव्यवस्थाको ही अलग-अलग दो भागों में विभक्त कर दिया गया है । इस तरहसे समस्त भारतीयदर्शनोंमें मूलरूपसे उपयोगितावादके विद्यमान रहते हुए भी अफसोस है कि धीरे-धीरे सभी दर्शन उपयोगितावाद के मूलभूत आधारसे निकल कर अस्तित्ववाद के उदरमें समा गये अर्थात् प्रत्येक दर्शन में अपनी व दूसरे दर्शनकी प्रत्येक मान्यताके विषय में अमुक मान्यता लोककल्याणके लिये उपयोगी है या नहीं ?' इस दृष्टिसे विचार न होकर 'अमुक मान्यता संभव हो सकती है या नहीं ?' इस दृष्टिसे विचार होने लग गया और इसका यह परिणाम हुआ कि सभी दर्शकारोंने अपने-अपने दर्शनोंके भीतर उपयोगिता और अनुपयोगिताकी ओर ध्यान न देते हुए अपनी मान्यताको संभव और सत्य तथा दूसरे दर्शनकारोंकी मान्यताको असंभव और असत्य सिद्ध करनेका दुराग्रहपूर्ण एवं परस्पर कलह पैदा करने वाला ही प्रयास किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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