Book Title: Jain Darshan me Sallekhana Ek Anuchintan
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf
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'वे पुरुष भी पुण्यशाली हैं, कृतार्थ हैं, जो पापकर्मरूपी मैलको छुटानेवाले क्षपकरूपी तीर्थमें सम्पूर्ण भक्ति और आदरके साथ स्नान करते हैं । अर्थात् क्षपकके दर्शन, वन्दन और पूजनमें प्रवृत्त होते हैं ।'
'यदि पर्वत, नदी आदि स्थान तपोधनोंसे सेवित होनेसे 'तीर्थ' कहे जाते हैं और उनकी सभक्ति वन्दना की जाती है तो तपोगुण की राशि क्षपक 'तीर्थ' क्यों नहीं कहा जावेगा? अर्थात उसकी वन्दना और दर्शनका भी वही फल प्राप्त होता है जो तीर्थ-वन्दनाका होता है ।'
'यदि पूर्व ऋषियोंकी प्रतिमाओंकी वन्दना करनेवालोंको पुण्य होता है, तो साक्षात् क्षपककी वन्दना एवं दर्शन करनेवाले पुरुषको प्रचुर पुण्यका संचय क्यों नहीं होगा ? अर्थात् अवश्य होगा।'
_ 'जो तीव्र भक्तिसहित आराधककी सदा सेवा--वैयावृत्य करता है उस पुरुषकी भी आराधना निर्विघ्न सम्पन्न होती है । अर्थात् वह भी समाधिपूर्वक मरण कर उत्तम गतिको प्राप्त होता है ।' सल्लेखना आत्म-घात नहीं है :
अन्तमें यह कह देना आवश्यक है कि सल्लेखनाको आत्म-घात न समझ लिया जायः क्योंकि आत्मधात तीव्र क्रोधादिके आवेशमें आकर या अज्ञानतावश शस्त्र-प्रयोग, विष-भक्षण, अग्नि-प्रवेश, जल-प्रवेश, गिरि-पात आदि घातक क्रियाओंसे किया जाता है, जब कि इन क्रियाओंका और क्रोधादिके आवेशका सल्लेखनामें अभाव है । सल्लेखना योजनानुसार शान्तिपूर्वक मरण है, जो जीवन-सम्बन्धी सुयोजनाका एक अङ्ग है । क्या जैनेतर दर्शनोंमें यह सल्लेखना है ?
यह सल्लेखना जैन दर्शनके सिवाय अन्य दर्शनोंमें उपलब्ध नहीं होती । हाँ, योगसूत्र आदिमें ध्यानार्थक समाधिका विस्तृत कथन अवश्य पाया जाता है। पर उसका अन्तःक्रियासे कोई सम्बन्ध नहीं है । उसका प्रयोजन केवल सिद्धियोंके प्राप्त करने अथवा आत्म-साक्षात्कारसे है। वैदिक साहित्यमें वर्णित सोलह संस्कारों में एक 'अन्त्येष्टि-संस्कार' आता है, जिसे ऐहिक जीवनके अन्तिम अध्यायकी समाप्ति कहा गया है और जिसका दूसरा नाम 'मृत्यु-संस्कार' है। इस संस्कारका अन्तःक्रियाके साथ सम्बन्ध हो सकता था। किन्तु मृत्यु-संस्कार सामाजिकों अथवा सामान्य लोगोंका किया जाता है, सिद्ध-महात्माओं, संन्यासियों या भिक्षुओंका नहीं, क्योंकि उनका परिवारसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता और इसीलिए उन्हें अन्त्येष्टि-क्रियाकी आवश्यकता नहीं रहती। उनका तो जल-निखात या भू-निखात किया जाता है । यह भी ध्यान देने योग्य है कि हिन्दुधर्ममें अन्त्येष्टिकी सम्पूर्ण क्रियाओंमें मत व्यक्तिके विषय-भोग तथा सुख-सुविधाओंके लिए ही प्रार्थनाएँ की जाती हैं । हमें उसके आध्यात्मिक लाभ अथवा मोक्षके लिए इच्छाका बहुत कम संकेत मिलता है। जन्म-मरणके चक्रसे मुक्ति पानेके लिए कोई प्रार्थना नहीं की जाती। पर जैन-सल्लेखनामें पूर्णतया आध्यात्मिक लाभ तथा मोक्ष-प्राप्तिकी भावना स्पष्ट सन्निहित रहती है, लौकिक एषणाओंकी उसमें कामना नहीं होती। इतना यहाँ ज्ञातव्य है कि निर्णय-सिन्धुकारने ब्रह्मचारी, गृहस्थ और वानप्रस्थ के अतिरिक्त आतुर अर्थात् मुमूर्षु ( मरणाभिलाषी) और दुःखित अर्थात् चौरव्याघ्रादिसे भयभीत व्यक्ति के लिए भी
१,२. डा० राजबली पाण्डेय, हिन्दूसंस्कार पृ० २९६ । ३. डा० राजबली पाण्डेय, हिन्दूसंस्कार पृ० ३०३ । ४. हिन्दूसंस्कार पृ० ३०३ तथा कमलाकरभट्टकृत निर्णयसिन्धु पृ० ४४७ । ५. हिन्दू संस्कार पृ० ३४६ ।
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