Book Title: Jain Darshan me Naitik Adarsh ke Vibhinna Rup Author(s): Kamalchand Sogani Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf View full book textPage 3
________________ सुखका अनुभव करता है जो आत्मोत्पन्न, विषयातीत, अनुपम, अनन्त और अविच्छिन्न' है वह सारे लोकमें किसी के द्वारा न छिन्न होता है, न भिन्न, न दग्ध होता है और न निहत। उसने राग और द्वेष रूपी दोनों अंतोंको छोड़ दिया है । चतुर्थ, जैनाचार्योंने पंडित - पंडित मरणको उच्चतम आदर्श घोषित किया है। इसका अभिप्राय यह है कि जीव पंडित मरण, बाल-पंडित-मरण, बाल-मरण और बाल-बाल-मरणको पण्डित पण्डित मरण रूपी आदर्श की प्राप्ति में बाधक समझें। जो जीव मिथ्या दृष्टिवाले होते हैं उनका मरण बाल बालमरण कहलाता है। ऐसे जीव पूर्णतया आत्मविमुख होते हैं। जिन जीवोंमें सम्यक् दृष्टि उत्पन्न हो चुकी है अर्थात् जो जीव आत्म-रुचिवाले हैं उनका मरण बाल-मरण कहलाता है । जिन जीवोंने आत्मरुचि के साथ पञ्चाणुव्रतोंको धारण कर लिया है उनका मरण बाल-पण्डित मरण कहलाता है । किन्तु जिन्होंने पञ्च महाव्रतोंको धारण किया है उनका मरण पण्डित पण्डित-मरण अलौकिक है। इसे ही विदेह मुक्ति कहते हैं। पंचम, परादृष्टिकी प्राप्तिको भी उच्चतम ध्येय स्वीकार किया गया है। आचार्य हरिभद्रने अपने ग्रन्थ योगदृष्टिसमुच्चयमें इसका सूक्ष्म विवेचन किया है। उनके अनुसार आठ दृष्टियाँ मित्रा, तारा, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा - योग दृष्टियाँ कहलाती हैं । हरिभद्रने इन दृष्टियों की तुलना क्रमशः तृणाग्नि, गोमयाग्नि, काष्ठाग्नि, दीपक, रत्न, तारा, सूर्य और चन्द्रमाके प्रकाशोंसे की है मित्रा दृष्टिका प्रकाश न्यूनतम और परादृष्टिका प्रकाश उच्चतम होता है। प्रथम चार दृष्टियोंको प्राप्त करनेके पश्चात् भी साधक अपनी प्रारम्भिक भूमिका पर लौट सकता है। अतः ये दृष्टियाँ अस्थिर हैं। किन्तु पांचवीं स्थिरा दृष्टि प्राप्त करनेके पश्चात् साधकका अपनी आध्यात्मिक भूमिकासे नीचे गिरना असम्भव है । अतः अन्तिम चार दृष्टियाँ स्थिर हैं और साधक इनमें शनैः शनैः उच्चतम ध्येय की ओर अग्रसर होता चला जाता है। मित्रा दृष्टिका प्रकाश अतिमन्द होता है और साधकको शुभ कार्य करते जरा भी खेद नहीं होता। तारा दृष्टिमें तत्त्व ज्ञानकी जिज्ञासा उत्पन्न होती है। बला दृष्टिमें तत्त्व श्रवणकी उत्कट इच्छा उत्पन्न होती है। दीप्रा दृष्टिमें यद्यपि सूक्ष्म बोधका अभाव होता है तथापि साधक प्राणार्पण करके भी सदाचरणकी रक्षा करता है। स्थिरा दृष्टिमें रत्नप्रभाके समान सूक्ष्म बोध उत्पन्न हो जाता है और साधक मिथ्यात्वको प्रन्थिका भेदन कर देता है । उसे बाहरी पदार्थ मायाके रूपमें दिखाई देते हैं । उसमें पूर्ण आत्मरुचि उत्पन्न हो जाती है । कान्ता दृष्टि में साधक चित्तकी चंचलताको कम करता है जिससे मन अपने लक्ष्यकी ओर स्थिर किया जा सके। जैसे तारा एक-सा प्रकाश देता है वैसे ही इस दृष्टिवाले प्राणीका बोध एक-सा स्पष्ट एवं स्थिर होता " है। प्रभा दृष्टिमें ध्यान उच्चकोटिका होता जाता है। इसमें बोध सूर्यको प्रभाके समान होता है जो लम्बे समय तक अति स्पष्ट रहता है । इसके पश्चात् परादृष्टिकी प्राप्ति होती है जो अन्तिम और उच्चतम है । १. प्रवचनसार १३ । आचारांग १, ५, ७३ । २. आचारांग १.१,४८ । ३. भगवती आराधना २५ । ४. वही ३० । ५. योगदृष्टि समुच्चय १३ । ६. वही, १५ । ७. जैन आचार पृ० ४६, द्वारा डॉ० मोहनलाल मेहता । २६६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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