Book Title: Jain Darshan me Jiva Astittva ki Vaignanikta Author(s): Mahendrasagar Prachandiya Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 3
________________ जीव की परमात्मा अवस्था में अनन्त चतुष्टय जग जाते हैं। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त बल और अनन्त सुख वस्तुतः अनन्त चतुष्टय कहलाते हैं। अनन्त चतुष्टय धारी जीव की अवस्था ही सिद्ध अवस्था कहलाती है। यहाँ पहुँचते ही उसके सारे राग, विराग विसर्जित हो जाते हैं और वह पूर्णतः हो जाता है -वीतराग। इस प्रकार जीव का विकासात्मक अस्तित्व रागमयी से विरागमयी होता हुआ वीतरागमयी हो जाता है। उसकी वीतरागमता ही उसका सिद्धत्व है, ईश्वरत्व है। मंगल कलश 394 सर्वोदयनगर, आगरा रोड़, अलीगढ़। 888888888880000838003886880038800000000000000000000000000000000000000000000 चिंतन कण * अगरब त्ती की खुशबी से जन-मानस प्रफुल्लित हो उठते हैं किंतु यदि उससे बढ़कर प्रेम पराग / जीवन में उतर गया तो वह भी जीवन को झंकृत किए बिना नहीं रह सकता। प्रेम से बढ़कर इसका कोई मंत्र नहीं * संसार के प्राणिमात्र से निःस्वार्थ भाव से प्रेम करना ही वास्तविक प्रेम हैं। * जीवन के अंतिम लक्ष्य की पगडंडी तर्क नहीं वरन् समर्पण हैं। * तर्क जीवन को उलझाने वाला हैं, वहीं श्रद्धा जीवन को सुलझाने की प्रक्रिया हैं। 888888888880888 - परम विदुषी महासती श्री चम्पाकुवंरजी म.सा. (116) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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