Book Title: Jain Darshan me Bandh Moksha
Author(s): Ashok Kumar
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 3
________________ २. सम्यक् ज्ञान - बाहर से जो कुछ भी हो रहा हो, उसके पूर्ण ज्ञान को सम्यक् ज्ञान कहते हैं । बाह्य के प्रति तटस्थ दर्शन हमें उनके सारतत्व का बोध करा देता है। इस प्रकार भीतर और बाहर के प्रति मौन- सजगता से मूर्च्छा टूटती है, जड़ता मिटती है और आत्मचेतना जाग्रत होती है । जिससे पुराने संस्कारों का क्षय हो जाता है। अतः व्यक्ति 'निर्ग्रन्थ' होकर अपने स्वरूप में चला आता है । ३. सम्यक् चारित्र - मात्र दर्शन और ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, वरन् इसे व्यवहार में ढालना भी आवश्यक है। सम्यक् चारित्र सम्यक ज्ञान और सम्यक् दर्शन का आवश्यक परिणाम है क्योंकि चारित्र ज्ञान का अनुगमन करता है। सुकरात ने कहा था, 'ज्ञान ही सद्गुण है' और महावीर ने भी कहा, 'पहले ज्ञान है, तब क्षमा' पढमं णाणं तओ दया। अहित कार्यों का वर्जन एवं हित कार्यों का साधन 'सम्यक् चारित्र' है। सम्यक् चारित्र कोई कर्मकाण्ड नहीं, वरन् एक जीवन शैली है जो सम्यक् दर्शन और ज्ञान से अनुप्राणित है । यह एक समत्व और संतुलन का जीवन है समयाये समणो होई।' सम्यक् चारित्र 'पंच महाव्रत' में अभिव्यक्त होता है, वे हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह | १. अहिंसा— प्रमादवश दूसरों को कष्ट देना हिंसा है और अप्रमत्त होकर सब में प्रेम करना एवं किसी को मन, वचन और कर्म से कष्ट नहीं देना अहिंसा है। भगवान् महावीर के अनुसार सभी प्राणी जीना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता, अतः प्राणी-वध का परित्याग करना चाहिए । अहिंसा की धारणा स्वाइत्जर के 'रेवरेंस ऑव लाइफ' की धारणा के अनुकूल है। यह असभ्य लोगों की जीवन के प्रति आतंकित दृष्टि नहीं जैसा कि मैकेन्जी ने माना था । महावीर मानते हैं कि वनस्पति से लेकर 'केवली' तक सभी सजीव हैं, सभी की आत्मा बराबर है, अत: सबको समान आदर मिलना चाहिए। दूसरी बात यह कि ज्ञान की स्थिति में सबके साथ रक्त सम्बन्ध सा हो जाता है। सभी अपने से हो जाते हैं, अतः ज्ञानी किसी का अहित कर ही नहीं सकता । अहिंसा का आधार समानता और पारस्परिक सहानुभूति है, क्योंकि भगवान् महावीर ने कहा है कि "हमें दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए, जैसा हम दूसरों से अपने प्रति चाहते हैं। यदि कोई स्वयं दुःख पसन्द नहीं करता है, तो उसे दूसरों को भी दुःखी नहीं करना चाहिए। आत्मा ही उचित-अनुचित की परख की आधारशिला है। 112 २. सत्य - जो जैसा है, उसका उसी रूप में कथन करना सत्य है। जैन दर्शन 'अनेकान्त' में विश्वास करता है। इसके अनुसार, सत्य के अनन्त पहलू हैं - अनन्तधर्मकं वस्तु, फलस्वरूप "ऐसा ही है," नहीं कहा जा सकता, वरन् "ऐसा भी है" कहना अधिक उचित है । अत: निश्चयात्मक वाणी का प्रयोग नहीं करना चाहिए। वह भी हिंसा का कारण हो सकता है। अतएव 'सत्य' के साथ 'शील' जुड़ा हुआ है । फलस्वरूप जैन दर्शन भी सत्यं ब्रूयात्, प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियं में विश्वास करता है । ३. अस्तेय - 'स्तेय' का अर्थ है - 'चौर्य' । अस्तेय इसके विपरीत है अर्थात् किसी की वस्तु को बिना उसकी आज्ञा के नहीं लेना चाहिए (अदत्तादानं स्तेयम्) ।' जैन दर्शन मानता है कि संसार में जीवन-यापन के लिए धन आवश्यक है। सांसारिक दृष्टि से धन जीवन का दूसरा रूप है । अतः किसी की वस्तु का अपहरण नहीं करना चाहिए। मार्क्स की तरह महावीर भी मानते हैं कि धन का सम्यक् विभाजन होना चाहिए। अतः उन्होंने कहा है कि जो धन का सम्यक् विभाजन नहीं करते, वे मोक्ष के अधिकारी नहीं हो सकते हैं (असंविभागी नहु तस्स मोक्खो ) । * ४. ब्रह्मचर्यन्द्रियों का संयम ब्रह्मचर्य है (मैथुनं ब्रह्म) । जैन दर्शन आत्म-संयम और इन्द्रिय निग्रह पर जोर देता है। उसके अनुसार, आत्म-संयम व्यक्तिगत और सामाजिक उत्थान के लिए आवश्यक है। ज्ञान की स्थिति में 'अहंचर्य' मिट जाता है और 'ब्रह्मचर्य' की उपलब्धि होती है । ब्रह्मचर्य की स्थिति में व्यक्ति 'सृष्ट' न रहकर 'स्रष्टा' हो जाता है और उसका दृष्टिकोण विशाल और जीवनव्यापी हो जाता है, जिसमें सर्वकल्याण की भावना निहित होती है । ४. अपरिग्रह आवश्यकता से अधिक न लेना 'अपरिग्रह' है जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को इच्छाओं में परिमितता बरतनी चाहिए, क्योंकि तृष्णा दुष्पूर है - दुष्पू अए इमें आया । इच्छाएं आकाश के समान अनन्त हैं। क्योंकि वे कभी पूरी होने वाली नहीं हैं। ज्यों-ज्यों लाभ होता जाता है, त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता जाता है। १. उत्तराध्ययन सूत्र, २५/३२ २. आचारांग सूत्र १/३/३ ३. तत्वार्थ सूत्र, ७/१५ ४. दशर्वकालिक सूत्र, ६/२/२२ ५. तत्वार्थ सूत्र, ७/१६ ६. 'जहा लाहो तहा लोहो । लाहो लोहो पवड्ढई ॥', उत्तराध्ययन सूत्र, ८/१७ जैन दर्शन मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only ६१ www.jainelibrary.org

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