Book Title: Jain Darshan me Ajiva Dravya Author(s): Anandrushi Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf View full book textPage 3
________________ 338 | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 000000000000 di ......." यह सब बीस, पुद्गल के असाधारण गुण हैं जो तारतम्य एवं सम्मिश्रण के कारण संख्यात, असंख्यात और अनन्त रूप ग्रहण करते हैं / शब्द, छाया, आतप और उद्योत को भी पौद्गलिक माना गया है। शब्द आकाश का गुण नहीं है; पर भाषा वर्गणा के पुद्गलों का विशिष्ट परिणाम है / छाया प्रकाश के ऊपर आवरण आ जाने से पैदा होती है / विज्ञान में भी तमरूप एवं ऊर्जा का रूपान्तरण रूप छाया दो प्रकार की मानी गई हैं और प्रो० मैक्सवान् के अनुसार ऊर्जा और Matter अनिवार्य रूप से एक ही हैं / अतः स्पष्ट है कि छाया भी पौद्गलिक ही है / तम (अन्धकार) जो दर्शन में बाधा डालने वाला एवं प्रकाश का विरोधी परिणाम है, को विज्ञान भी मावात्मक मानता है क्योंकि उसमें अदृश्य तापकिरणों का सद्भाव पाया जाता है / पुद्गल अणुरूप और स्कन्धरूप होते हैं / पुद्गल के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश होते हैं / साधारणतया कोई स्कन्ध बादर और कोई सूक्ष्म होते हैं / बादर स्कन्ध इन्द्रियगम्य और सूक्ष्म इन्द्रिय अगम्य होते हैं (अनुयोग . द्वार) / इनको छः भागों में विभक्त किया गया है बादर-बादरस्कन्ध-जो टूटकर जुड़ न सके, जैसे लकड़ी, पत्थर / बादर स्कन्ध-प्रवाही पुद्गल जो टूटकर जुड़ जाते हैं। सूक्ष्म बादर--जो देखने में स्थूल किन्तु अकाट्य हो, जैसे-धूप / बादर सूक्ष्म-सूक्ष्म होने पर भी इन्द्रियगम्य हो, जैसे-रस, गन्ध, स्पर्श / सूक्ष्म-इन्द्रियों से अगोचर स्कन्ध तथा कर्मवर्गणा / / सूक्ष्म-सूक्ष्म-अत्यन्त सूक्ष्म स्कन्ध यथा कर्मवर्गणा से नीचे के द्रव्ययुक्त पर्यन्त पुद्गल / पुदगल का वह अंश जो एक प्रदेशी (एक प्रदेशात्मक) है / जिसका आदि, मध्य व अन्त नहीं पाया जाता, या दूसरी भाषा में कहें तो जो स्वयं अपना आदि, मध्य व अन्त है / जो अविभाज्य सूक्ष्मतम है, परमाणु कहलाता है। यह सृष्टि का मूल तत्त्व है / उपनिषदों की तरह जैन-दर्शन भी भौतिक जगत के विश्लेषण को पृथ्वी इत्यादि तत्त्वों में पहुँचकर नहीं रोक देता बल्कि वह विश्लेषण की प्रक्रिया को और पीछे पहुंचा देता है / ग्रीक दार्शनिक डेमोक्रिट्स और ल्युपिकस के समान वह परमाणुओं में गुणात्मक भेद नहीं मानता / विज्ञान की मान्यता है कि मूलतत्त्व अणु (atom) अपने चारों ओर गतिशील इलेक्ट्रॉन, प्रोट्रॉन के संख्या भेद से चाँदी, ताँबा, लोहा, ऑक्सीजन आदि अवस्थाओं को धारण करता है। जैन-दर्शन का परमाणु भी विभिन्न संयोगों द्वारा भिन्न-भिन्न तत्त्वों को बनाता है। परमाणु स्वभावतः गतिशील है- इनमें स्निग्धता और रूक्षता होने के कारण परस्पर बन्ध होता है। इस तरह द्वययुक्त, त्र्ययुक्त""स्कन्ध आदि बनते हैं / सृष्टि की प्रक्रिया में सृष्टिकर्ता ईश्वर की आवश्यकता नहीं है / पुद्गल परमाणु जब तक अपनी सम्बन्ध शक्ति से शिथिल या घने रूप से परस्पर जुड़े रहते हैं तब वे स्कन्ध कहलाते हैं / स्कन्ध की उत्पत्ति संघात और भेद दोनों से होती है। उत्पत्ति प्रक्रिया के आधार पर स्कन्ध के भेद यों हैं-(१) स्कन्धजन्य स्कन्ध (2) परमाणुजन्य स्कन्ध (3) स्कन्धपरमाणुजन्य स्कन्ध / सांख्य प्रकृति को अनित्य व पुरुष को नित्य, तो वेदान्त परम तत्त्व को एकान्तत: नित्य और बौद्ध यथार्थ को क्षणिक मानते हैं, पर जैन-दर्शन की दृष्टि में सभी द्रव्य स्पष्ट हैं कि पुद्गल भी द्रव्याथिक दृष्टि से नित्य व पर्यायाथिक दृष्टि से अनित्य हैं। चूंकि पुद्गल इस तरह अविनाशी ध्र व है अत: शून्य में से सृष्टि का निर्माण संभव नहीं है, सिर्फ परिवर्तन होता, न तो पूर्णतः नयी उत्पत्ति संभव है और न पूर्णतः विनाश ही / वैज्ञानिक लैव्हाइजर के शब्दों में सृष्टि में कुछ भी निर्मय नहीं सिर्फ रूपान्तर होता है / 1 पञ्चास्तिकाय, 2 // 124-125 2 तत्त्वार्थसूत्र, अ० 4 3 व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र श० 13, उद्देश्य 4, सू. 481 4 तत्त्वार्थसूत्र अ० 5, सूत्र 23 5 भगवती सूत्र श० 13, उद्देश्य 4, सूत्र 481 6 भगवती सूत्र श० 12 उद्देश्य 4, सूत्र 450 7 राजवार्तिक 575 शन RANON / 21 Lain Bducation International -For-PrintineDauconaleon arjanापPage Navigation
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