Book Title: Jain Darshan me Ahimsa Author(s): Sunil Jain Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 2
________________ शुद्ध, शाश्वत और नियत है। इसमें प्रतिपादित शुद्ध धर्म को अहिंसा ही माना गया है / इस लोक में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनकी हिंसा न जानकर करो, न अनजान में करो और न दूसरों से ही किसी की हिंसा कराओ, क्योंकि सबके भीतर एक-सी आत्मा है। जो व्यक्ति खुद हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है और दूसरों की हिंसा का अनुमोदन करता है, वह अपने लिए बैर ही बढ़ाता है।' वस्तुतः हिंसा के रागादिक भाव दूर हो जाने पर स्वभावतः, अहिंसा-भाव जाग्रत हो जाता है / दूसरे शब्दों में, समस्त प्राणियों के प्रति संयम भाव ही अहिंसा है / 'अहिंसा' शब्द का प्रायः निषेधात्मक अर्थ में प्रयोग किया जाता है। निषेध का अर्थ है-"किसी चीज को रोकना या न होने देना।" अत: निषेधात्मक अहिंसा का अर्थ किसी भी प्राणी के प्राणघात का न होना या किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का कष्ट न देना है। जैन दर्शन में अहिंसा के दो पक्ष मिलते हैं। हिंसा न करना' यह अहिंसा का एक पक्ष है, उसका दूसरा पक्ष है—मैत्री, करुणा और सेवा / पहला पक्ष निवृत्ति-प्रधान है और दूसरा पक्ष प्रवृत्ति-प्रधान / प्रवृत्ति, निवृत्ति दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है / अत: प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों में अहिंसा समाहित है। जैन धर्म में हिंसा-अहिंसा सम्बन्धी विचारों को श्रावक-श्रमण-भेदानुसार दो वर्गों में विभाजित किया गया है। जैनाचार में इसके दो शब्द देशविरत (अणुव्रत) और सर्वविरत (महाव्रत) मिलते हैं। देशविरत से तात्पर्य उन लोगों से है जो अहिंसादि का पालन पूर्णरूपेण नहीं करते हैं, ऐसे लोग श्रावक कहलाते हैं। सर्वविरत का पालन श्रमण करते हैं जो हिंसा आदि समस्त स्थूल-सूक्ष्म दोषों का परित्याग कर देते हैं / अतएव श्रावक और श्रमण दोनों के ही आचारों में अहिंसा उचित स्थान रखती है। जैन संस्कृति में जीवन के प्रत्येक क्रिया-कलाप को अहिंसा की कसौटी पर कसा गया है। अहिंसा को ठीक प्रकार से न समझने के कारण ही जनमानस में अनेक भ्रांतियां प्रवेश कर गई हैं। कभी-कभी कुछ लोग कहते हैं---"अहिंसा व्यक्ति को कायर बना देती है, इससे आदमी का वीरत्व एवं रक्षा का साहस ही मारा जाता है।" किन्तु यह धारणा निर्मूल एवं गलत है / आत्मरक्षा के लिए उचित प्रतिकार के साधन सीमाविशेष में जुटाना जैन धर्म के विरुद्ध नहीं है। अहिंसा का प्रथम सोपान तो निर्भयता है, यह कायरता से दूर है, यह वीरत्व का मार्ग है जिसके मूल में आत्मा के विराट् भाव की साधना निहित है। अहिंसा पर विचार करते समय एक प्रश्न विशेष रूप से उठता है कि संसार में युद्ध जब आवश्यक हो जाता है तो उस समय भहिंसा का साधन किस प्रकार का रूप अपनाएगा ? युद्ध के न करने पर आत्मरक्षा और राष्ट्र रक्षा के हित के लिए इस प्रकार की हिंसा करना हिंसा नहीं है, प्रत्युत यह तो परम कर्त्तव्य है। चन्द्रगुप्त, चामुण्डराय, खारवेल आदि जैसे जैन अधिपति योद्धाओं ने शत्रुओं के दांत खट्टे किए हैं / इसलिए रक्षणात्मक हिंसा पाप का कारण नहीं है। अतः अधिकारी के लिए प्राणी का वध हिंसा नहीं, अहिंसा ही है / कर्तव्य से च्युत होने पर अवश्य धर्म की हिंसा होगी। पापी का वध न करके उल्टा उसके हाथों मर जाना यह कौन-सा धर्म होगा? यहां हमें गीता में वर्णित महायोद्धा अर्जुन का युद्ध-धर्म इस प्रकार के अहिंसा की याद दिलाता है। अर्जुन का मोह-भ्रम भगवान कृष्ण ने इसी तरह की अहिंसा का उपदेश देकर दूर किया था। डॉक्टर यदि रोगी के किसी सड़े हुए अंग को जो उसके जीवन के लिए हानिकारक है काट डालता है अथवा मजिस्ट्रेट चोर को दण्ड तथा हत्यारे को फांसी की सजा देता है तो क्या इसे हिंसा करना कहेंगे? कदापि नहीं, बल्कि यदि वे दोनों अपने कर्तव्य-पालन में कायरता दिखाते हैं तो अवश्य वे हिंसा के ही अपराधी होंगे क्योंकि उन्होंने अपने-अपने कर्तव्यपालन द्वारा उन लोगों का श्रेय नहीं किया, अपितु उनके अधःपतन में ही अपनी सहायता दी। इस प्रकार किसी शरीर को कष्ट देना मात्र ही हिंसा का स्वरूप नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मात्र क्रिया अपने स्वरूप से पुण्यपाप रूप नहीं हो सकती वरन् बुद्धि-भाव ही पुण्य-पाप रूप हो सकेगा। जीवतत्व और अजीव तत्त्वों का संक्रमण, परिक्रमण और विक्रमण ही संसार है। वह पूर्ण भी इसी तरह है। इस विश्व की पूर्णता में ही विराट रूप में अहिंसा का दर्शन होता है। सर्वप्राणियों का उदय ही सर्वोदय रूप पूर्ण अहिंसा है और सर्वोदय ही अहिंसा का विराट रूप है। 1. उत्तराध्ययन 8, 10. 1. पंचाध्यायी 813. 104 माचार्यरस्न श्री वेशभूषणजी महाराज अभिनन्दन प्रन्थ __Jain.Education.International..... For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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