Book Title: Jain Darshan ki Dravya Gun Paryay ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_5_001688.pdf

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Page 12
________________ ११४ ( पृ०३८) में उपाध्याय श्री कन्हैयालाल जी म०सा० कमल लिखते हैं कि प्रज्ञापना (सूत्र) में पर्याय के दो भेद प्रतिपादित हैं-- १. जीव पर्याय और २. अजीव पर्याय! ये दोनों प्रकार की पर्यायें अनन्त होती हैं। जीव पर्याय किस प्रकार अनन्त होती है, इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि नैरयिक, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक, पृथ्वीकायिक, अष्कायिक तेजस्कायिक, वायुकायिक, द्विन्द्रिय, त्रेन्द्रिय, चतुरीन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक और मनुष्य ये सभी जीव असंख्यात् हैं, किन्तु वनस्पतिकायिक और सिद्ध जीव तो अनन्त हैं, इसलिए जीव पर्यायें अनन्त हैं। इसी प्रकार अजीव पुद्गल आदि रूप है, पुनः पुद्गल स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु रूप होता है, साथ ही उसमें वर्ण, गन्ध, रस, रूप और स्पर्श गुण होते हैं, फिर इनके भी अनेक आवान्तर भेद होते हैं, साथ ही प्रत्येक गुण के भी अनेक अंश (Degrees) होते हैं, अतः इन विभिन्न अंशों और उनके विभिन्न संयोगों की अपेक्षा से पुद्गल आदि अजीव द्रव्यों की भी अनन्त पर्याये होती हैं। जिनका विस्तृत विवेचन प्रज्ञापनासूत्र के पर्याय पद में किया गया है। (ख) अर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्याय पुनः पर्याय दो प्रकार की होती है- १. अर्थपर्याय और २. व्यंजनपर्याय | एक ही पदार्थ की प्रतिक्षण में परिवर्तित होने वाली क्रमभावी पर्यायों को अर्थ पर्याय कहते हैं तथा पदार्थ की उसके विभिन्न प्रकारों एवं भेदों में जो पर्याय होती है उसे व्यंजन कहते हैं। अर्थ पर्याय सूक्ष्म एवं व्यंजन पर्याय स्थूल होती है। ज्ञातव्य है कि धवला (४/१/५.४/३३७/६) में द्रव्य पर्याय को ही व्यंज्जन पर्याय कहा गया है। और गुण पर्याय को ही अर्थ पर्याय भी कहा गया है । द्रव्य पर्याय और गुण पर्याय की चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। यहाँ स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि व्यञ्जन पर्याय ही द्रव्य पर्याय और अर्थ पर्याय ही गुण पर्याय है तो फिर इन्हें पृथक्-पृथक् क्यों बताया गया है, इस उत्तर यह है कि प्रवाह की अपेक्षा से व्यञ्जन पर्याय चिरकायिक होती है, जैसे जीव की चेतन पर्याय सदैव बनी रहती है चाहे चेतन अवस्थाएं बदलती रहें, इसके विपरीत अर्थ पर्याय गुणों और उनके अंशों की अपेक्षा से प्रति समय बदलती रहती है। व्यञ्जन पर्याय सामान्य है, जैसे जीवों की चेतना पर्यायें जो सभी जीवों में और सभी कालों में पाई जाती हैं। वे द्रव्य की सहभावी पर्यायें हैं और अर्थ पर्याय विशेष है जैसे किसी व्यक्ति विशेष की काल विशेष में होने वाली क्रोध आदि की क्रमिक अवस्थाएं, अतः अर्थ पर्याय क्रमभावी हैं, वे क्रमिक रूप से काल क्रम में घटित होती रहती हैं अतः कालकृत भेद के आधार पर उन्हें द्रव्य पर्याय और पर्याय से पृथक् कहा गया है। गुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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