Book Title: Jain Darshan ke Samanvayavadi Drushtikon ki Grahyata Author(s): Darbarilal Kothiya Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf View full book textPage 1
________________ जैन दर्शन के समन्वयवादी दृष्टिकोणकी ग्राह्यता यों तो किसी भी युग और किसी भी कालमें संघटन और ऐक्यकी महत्ता और आवश्यकता है, किन्तु वर्तमान में उसकी नितान्त अपेक्षा है । राष्ट्रों, समाजों, जातियों और धर्मों सभीको एक सूत्र में बंधकर रहने की जरूरत है । यदि राष्ट्र समाज, जातियां और धर्म सहअस्तित्व के व्यापक और उदार सिद्धान्तको स्वीकार कर उसपर आचरण करें तो न राष्ट्रोंमें, न समाजोंमें, न जातियोंमें और न धर्मो में परस्पर संघर्षकी नौबत आ सकती है । विश्वके मानव यह सोच लें कि मानवताके नाते हमें जैसे रहने और जीने का अधिकार है वैसे ही दूसरे मनुष्योंको भी, चाहे वे विश्वके किसी कोने के, किसी समाजके, किसी जातिके, किसी धर्मके या किसी वर्गके हों । आखिर मनुष्य सब हैं और पैदा हुए हैं तो उन्हें अपने ढंगसे रहने तथा जीने का भी हक प्राप्त है । यदि हम उनके इस हकको छीनते हैं तो यह न्याय नहीं कहलायेगा - अन्याय होगा और अन्याय करना मनुष्यके लिए न उचित है और न शान्तिदाता एवं प्रेम-प्रदर्शक है । यदि मनुष्यके सामने इतना विचार रहता है तो उनमें कभी संघर्ष नहीं हो सकता । संघर्ष होता है स्वार्थ और आत्माग्रहसे - अपने ही अस्तित्वको स्वीकार कर इतरका विरोध करनेसे । विश्वमें जब-जब युद्ध हुए या होते हैं तब-तब मनुष्य जातिके एक वर्गने दूसरे वर्गका विरोध किया, उसपर हमला किया और उसे ध्वस्त करनेका प्रयास किया है । आज भी विश्व दो गुटोंमें बंटा हुआ है तथा ये दोनों गुट एक-दूसरे के विरुद्ध मोरचाबन्दी किये हुए हैं । अपनी शक्तिको विरोधी के ध्वंसमें प्रयुक्त कर रहे हैं । फलतः युद्धका भय या युद्धकी आशंका निरन्तर रहती है । यदि दोनों गुट विरोधमें नहीं, निर्माण में अपनी सम्मिलित शक्तिका उपयोग करें तो सारा विश्व सदा निर्भय, शान्त, सुखी और समृद्ध हो सकता है । यद्यपि एक रुचि, एक विचार और एक आचारके सब नहीं हो सकते, सबकी रुचियां, सबके विचार और सबके आचार भिन्न-भिन्न होते हैं, किन्तु रुचि - भिन्नता, विचार - भिन्नता और आचार - भिन्नताके होते हुए भी उनमें समन्वयकी संभावना निश्चय ही विद्यमान रहती है। एक परिवारमें दस सदस्य हैं और सबकी रुचि, विचार और आचार अलग-अलग होते हैं । एक सदस्यको उड़द की दाल अच्छी लगती है, दूसरेको अरहर की दाल प्रिय है, तीसरेको हरी शाक स्वादिष्ट लगती है । इसी तरह अन्य सदस्योंकी रुचि अलगअलग होती है । विचार भी सबके एक-से नहीं होते । एक राष्ट्रकी सेवाका विचार रखता है, दूसरा समाजसेवाको अपना कर्त्तव्य समझता है, तीसरा धर्म में संलग्न रहता है । दूसरे सदस्योंके भी विचार जुदे-जुदे होते हैं । आचार भी सबका एकसा नहीं होता। एक कुर्ता, धोती और टोपी लगाता है, दूसरा कोट, पतलून और कटाईको पसन्द करता है, तीसरा पेटीकोट, साड़ी और जम्फरको अपनी पोशाक समझता है । यह तीसरा स्त्री सदस्य है, जो उस दश संख्यक परिवारकी ही एक सदस्या है । इसी प्रकार बच्चे आदि अपना पहिनाव अलग रखते हैं । इस प्रकार उस परिवार में रुचि भेद, विचार-भेद और आचार-भेद होनेपर भी उसके सदस्यों में कभी संघर्ष नहीं होता । सबकी रुचियों, सबके विचारों और सबके आचारोंका ध्यान रखा जाता है और इस तरह उनमें सदा समन्वय के दृष्टिकोण से सुख और शान्ति रहती है । कदाचित् छोटा-मोटा मतभेद होनेपर आपसी समझौते या प्रमुखकी हितावह सलाह से वह सब मतभेद दूर हो जाता है और पूरा परि २५ Jain Education International - १९३ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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