Book Title: Jain Darshan aur Yoga Sadhna
Author(s): Kamla Mataji
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 2
________________ जैनदर्शन और योगसाधना / 73 है और साधना काल में पारिवारिक जीवन से भी पृथक रहता है। सांसारिक क्रियाओं से लगभग दूरी हो जाती है। मेरी तेरी जेवरी का बन्धन भी ढीला हो जाता है / भले ग्रामानुग्राम से आये हुए भाई बहनों से घनिष्ठ सम्बन्ध हो जाता है शिवरार्थी परिवार के रूप में, लेकिन अन्तर में वह मानता है कि यह मेरा नहीं है। इसलिए उसे साधनाकाल में शांति अनुभव होता है। लेकिन घर लौटने पर पुनः राग-द्वेष, प्रात-रौद्र ध्यान उसे घेरे रहते हैं। जितने 2 अंशों में सचित्त-अचित्त उपाधियों से ममत्व हटाने का प्रयत्न किया जायेगा, उतने 2 अंशों में शांति प्राप्त होती जायेगी। इसीलिए जैनदर्शन में महाव्रतों एवं अणुव्रतों का प्रावधान है। यह सब बाह्य उपाधियों से मुक्त होना है, लेकिन प्राभ्यन्तर उपाधियों से छुटकारा पाने के लिए सतत अभ्यास की आवश्यकता है / सतत जागरूक रहने की प्रावश्यकता है। भ. महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक ध्यानमग्न रहकर चिन्तन किया और प्राभ्यन्तर उपाधि से छुटकारा पाकर के सर्वज्ञता प्राप्त की। शास्त्रों में साधना का जहाँ वर्णन पाता है, वहाँ प्रथम प्रहर में स्वाध्याय और दूसरे प्रहर में ध्यान का विधान है। इसका यही प्राशय है कि ज्ञानरूपी सूत्र का पालम्बन लेकर ध्यान के द्वारा अशुद्ध भावों को रोके / अशुभ से शुभ में प्रवेश कर शुद्धता की ओर बढ़ें। __महापुरुषों ने जिस मार्ग का अनुसरण कर सिद्धि प्राप्त की, वही मार्ग भव्य प्राणियों के लिए कहा गया है / अशुभ मनोयोग कर्मबन्धन में अपनी पूरी 2 भूमिका निभाता है तो शुभ मनोयोग अगर उत्तरोत्तर शुद्धता की ओर बढ़ता जाये तो अन्तर्मुहूर्त में पूर्णता को प्राप्त करवा देता है। वचनयोग, काययोग तो इसीके इशारे पर चलते रहते हैं, केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त कर लेने के बाद भी सयोगीकेवली ही कहे जाते हैं। वहां पर भी चार अघातिक कर्म से बद्ध रहती है प्रात्मा / यह है योगों का साम्राज्य !जब योगों का निरुधन सम्पूर्ण रूप से हो जाता है तो क्षणिक समय में सिद्धत्व प्राप्त कर लेती है आत्मा / अतएव सतत जागरूक रहते हुए शुभाशुभ योगों पर दृष्टि रखने का प्रयास चाल रखना चाहिए। जलरूपी योगों से मुक्त होकर दुग्ध रूपी शुद्ध प्रात्मत्व को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त होगी तभी आधि, व्याधि, उपाधि से छटकारा होगा / अतएव जैनदर्शन में योगसाधना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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