Book Title: Jain Darshan Ki Samanvay Parampara Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 6
________________ - क्या आप इसे भारत का दुःखवाद एवं निराशावाद कहते हैं ? स्पष्ट है, इसे जीवन का पलायनवाद कहने की भल कोई कैसे कर सकता है? भारत के दर्शन-शास्त्र में याद कहीं पर दुःख-निराशा आदि के विचार मिलते भी हैं, तो वे विचार इसलिए नहीं कि वह हमारे जीवन का लक्ष्य है, बल्कि वह इसलिए होता है कि हम अपने इस वर्तमान जीवन की दीन-हीन अवस्था को छोड़कर महत्तता, उज्ज्वलता और पवित्रता की ओर अग्रसर हो सके। मूल में भारतीय-दर्शन निराशावादी नहीं हैं। दुःखवाद को वह वर्तमान जीवन में स्वीकार करके भी अनन्त काल तक दुःखी रहने में विश्वास नहीं करता। वर्तमान जीवन में मृत्यु सत्य है, किन्तु वह कहता है, मृत्यु शाश्वत नहीं है। यदि साधक के हृदय में यह भावना जम जाए कि मैं आज मरणशील अवश्य हूँ, किन्तु सदा मरणशील नहीं रहूँगा, तो इसे आप निराशावाद नहीं कह सकते। यह तो उस निराशावाद को आशावाद में परिणत करने वाला एक अमर संकल्प है। भारतीय-दर्शन प्रारम्भ में भले ही स्थूलदर्शी प्रतीत होता हो, किन्तु अन्त में वह सूक्ष्मदर्शी बन जाता है। स्थूलदर्शी से सूक्ष्मदर्शी बनना और सूक्ष्मदर्शी से सर्वदर्शी बनना ही उसके जीवन का लक्ष्य है। हमारे दर्शन, हमारे धर्म और हमारी संस्कृति के सम्बन्ध में जो कुछ विदेशी विद्वानों ने कहा है, उसे आँख मूंद कर स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है। आप अपनी स्वच्छ, तटस्थ बुद्धि की तुला पर तौल कर ही उसे ग्रहण करने का अथवा छोड़ने का प्रयत्न करें, अन्यथा दार्शनिक चर्चा के नाम पर व्यर्थ ही इधर-उधर का बहुत-सा अन्ध-विश्वास आप ग्रहण कर लेंगे। उदार दृष्टिकोण: ____ भारतीय-दर्शन का प्राचीन काल से ही उदार और विशाल दृष्टिकोण रहा है। क्योंकि वह अखण्ड सत्य का अनुसंधान करने हेतु चला है। सत्य-शोधक के लिए आवश्यक है कि वह अपनी दृष्टि को विशाल एवं व्यापक रखे। जहाँ भी सत्य हो, उसे ग्रहण करने की भावना रखे और जो कुछ असत्य है, उसे छोड़ने की तत्परता एवं साहस भी उसमें हो। सत्य के उपासक के लिए, किसी के मत का खण्डन करना आवश्यक नहीं है, एकांगी खण्डन और मण्डन दोनों ही सत्य से दूर रहनेवाले बौद्धिक द्वन्द्व है। दूसरे का खण्डन करने के लिए अपने मण्डन की आवश्यकता रहती है और फिर अपने मण्डन के लिए दूसरे का खण्डन आवश्यक हो जाता है। सत्य की उपलब्धि के साथ खण्डन का किसी भी प्रकार का कोई संबंध नहीं है। खण्डन में प्रायः दूसरे के प्रति घृणा और उपेक्षा का भाव रहता है। अतः सत्य को पाने का पथ, खण्डन-मण्डन से अति दर है। दुर्भाग्य है, मध्य-काल में पाकर भारतीय-दर्शनों में खण्डन-मण्डन की उन परम्परा चल पड़ी। विवेक-चक्षु को बन्द कर अपना मण्डन और दूसरों का खण्डन करना, यही एकमात्र उनका लक्ष्य बन गया था। प्रारम्भ में प्रतिपाद्य सत्य तार्किक-मीमांसा के हेतू खण्डन कुछ अर्थ भी रखता था, किन्तु आगे चल कर यह खण्डन की परम्परा सर्वग्रासी बन गई और एक ही पंथ और एक ही परम्परा के लोग भी परस्पर एक-दूसरे का ही खण्डन करने लग गए। प्राचार्य शंकर के अद्वैतवाद का खण्डन किया प्राचार्य मध्व ने और प्राचार्य मध्व के द्वैतवाद का खण्डन किया प्राचार्य शंकर के शिष्यों ने । शंकर-मत का रामानुज ने खण्डन किया और रामानुज-मत का शंकर-मत ने खण्डन किया। मीमांसक ने नैयायिक का खण्डन किया और नैयायिक ने मीमांसक का खण्डन किया। इस प्रकार जिस वैदिक-परम्परा ने जैन और बौद्ध के विरुद्ध मोर्चा खड़ा किया था, वे आपस में ही लड़ने लगे। बौद्धों में भी हीनयान और महायान को लेकर एक भयंकर खण्डन-मण्डन शुरू हो गया। महायान ने हीनयान को मिटा देना चाहा, तो हीनयान ने भी महायान को कुचल देने का दृढ़ संकल्प किया। बुद्ध के भक्त वैदिक और जैनों से लड़ते-लड़ते आपस में ही लड़ मरे। इसी प्रकार जिन के उपासक जैन भी, जिनकी साधना का एकमात्र लक्ष्य है, राग और द्वेष से दूर होना, वे भी राग और द्वेष के झंझावात में उलझ गए। श्वेताम्बर और दिगम्बरों के संघर्ष भी कम भयंकर नहीं थे। यह एक बहुत बड़ी ... पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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