Book Title: Jain Darshan Ek Maulik Chintan
Author(s): Nirmal Kumar Jain
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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________________ ३/ कृतियोंको समीक्षाएँ : ४५ "अभी तक राष्ट्रभाषा हिन्दीमें कोई ऐसी पुस्तक नहीं थी, जिसमें व्यापक और तुलनात्मक दृष्टिसे . जैनदर्शनके स्वरूपको स्पष्ट किया गया हो । बड़ी प्रसन्नताका विषय है कि इस बड़ी भारी कमीको प्रकृत पुस्तकके द्वारा उसके सुयोग्य विद्वान् लेखकने दूर कर दिया। पुस्तककी शैली विद्वत्तापूर्ण है, उसमें प्राचीन मल ग्रन्थों के प्रमाणोंके आधारसे जैनदर्शनके सभी प्रमेयोंका बड़ी विशद रीतिसे यथासम्भव सुबोध शैलीमें निरूपण किया गया है । विभिन्न दर्शनोंके सिद्धान्तोंके साथ तद्विषयक आधुनिक दृष्टियोंका भी इसमें सन्निवेष और उनपर प्रसंगानुसार विमर्श करनेका भी प्रयत्न किया गया है। पुस्तक अपने में मौलिक-परिपूर्ण और अनूठी है । हम हृदयसे ग्रन्थका अभिनन्दन करते हैं।" __ 'जैनदर्शन' ग्रन्थ में लेखकने १२ अधिकारोंके माध्यमसे सम्पूर्ण विवेचना को है। ‘पृष्ठभूमि और सामान्यावलोकन' नामके प्रथम अध्यायमें उन्होंने कर्मभूमिको प्रारम्भिक स्थितियोंकी चर्चा करते हुए भगवान् आदिनाथसे लेकर अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीरके काल तकको परिस्थितियों और प्रचलित मान्यताओंका उल्लेख किया है । साथ ही जैनधर्म एवं दर्शनके मूल मुद्दोंको उजागर करते हुए श्रुत परम्परा और मान्य आचार्योंका परिचय देते हुए उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तोंकी भी संक्षिप्त चर्चा की है। इस अध्यायके उपसंहारमें वे लिखते है कि तर्क जैसे शुष्क शास्त्रका उपयोग भी जैनाचार्योंने समन्वय और समताके स्थापनमें किया है। दार्शनिक कटाकटीके युगमें भी इस प्रकारको समता और उदारता तथा एकताके लिए प्रयोजक समन्वयदृष्टिका कायम रखना अहिंसाके पुजारियोंका ही कार्य था । स्याद्वादके स्वरूप तथा उसके प्रयोगकी विधियोंके विवेचनमें ही जैनाचार्योंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। इस तरह दार्शनिक एकता स्थापित करने में जैनदर्शनका अकेला और स्थायी प्रयत्न रहा है ।' (पृष्ठ २६ । ) ___विषय प्रवेश' नामक दूसरे अध्यायमें दर्शन शब्दकी उद्भूति, अर्थ आदिको स्पष्ट करते हुए विद्वान् लेखकने विभिन्न दार्शनिकोंके मनमाने अर्थका खण्डन करते हुए जैन दृष्टिकोणकी यथार्थता प्रतिपादित की है । इस अध्यायमें सुदर्शन और कुदर्शनकी व्याख्या करते हुए आपने लिखा है कि 'जिस प्रकार नयके सुनय और दुर्नय विभाग, सापेक्षता और निरपेक्षताके कारण होते हैं उसी तरह 'दर्शन' के भी सुदर्शन और कुदर्शन ( दर्शनाभास ) विभाग होते हैं । जो दर्शन अर्थात् दृष्टिकोण वस्तुकी सीमाको उल्लंघन नहीं करके उसे पानेकी चेष्टा करता है, बनानेकी नहीं, और दूसरे वस्तुस्पर्शी दृष्टिकोणदर्शनको भी उचित स्थान देता है, उसकी अपेक्षा रखता है वह सुदर्शन है और जो दर्शन केवल भावना और विश्वासकी भूमिपर खड़ा होकर कल्पनालोकमें विचरण कर, वस्तुसीमाको लांघकर भी वास्तविकताका दम्भ करता है, अन्य वस्तुग्राही दृष्टिकोणोंका तिरस्कार कर उनकी अपेक्षा नहीं करता वह कुदर्शन है। दर्शन अपने ऐसे कुपूतोंके कारण ही मात्र संदेह और परीक्षाकी कोटिमें जा पहुँचा है। अतः जैन तीर्थंकरों और आचार्योंने इस बातकी सतर्कतासे चेष्टा की है कि कोई भी अधिगमका उपाय, चाहे वह प्रमाण ( पूर्ण ज्ञान ) हो या नय ( अंशग्राही), सत्यको पानेका यत्न करे, बनानेका नहीं। वह मौजूद वस्तुकी मात्र व्याख्या कर सकता है । उसे अपनी मर्यादाको समझते रहना चाहिए।' (पृष्ठ ३८।) तीसरे अध्यायका शीर्षक है 'भारतीय दर्शनको जैनदर्शनकी देन' इस अध्यायका प्रारम्भ करते हुए लेखकने कहा है कि परम अहिंसक तीर्थंकर भगवान्ने मानसिक अहिंसाके लिए अनेकान्तदृष्टिके उपयोगकी बात कही है। अनेकान्तको अहिंसाका आधारभत तत्त्वज्ञान, स्याद्वादको एक निर्दोष भाषाशैली और स्यातको प्रहरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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