Book Title: Jain Bhaktakavi Banarasidas ke Kavya Siddhant
Author(s): Sureshchandra Gupt
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 1
________________ जैनभक्त कवि बनारसीदास के काव्य - सिद्धान्त हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल में चौदहवीं शती से सत्रहवीं शती तक भक्ति और नीति विषयक काव्य-रचना में अनेक जैन कवियों ने योग दिया था। इनमें सधारु और शालिभद्र सूरि ने प्रबन्धकाव्य-रचना में और पद्यनाभ, ठाकुर सी, बनारसीदास, राजसमुद्र तथा कुशलबीर ने मुख्यतः नीतिकाव्य-रचना में भाग लिया कवित्वगुण की दृष्टि से इनमें बनारसीदास का स्थान सर्वप्रमुख है। 1 कवि बनारसीदास का जन्म १५८६ ई० में उत्तरप्रदेश में जिला जौनपुर में हुआ था। वे जहाँगीर और शाहजहाँ के समकालीन थे और दोनों के दरबार में उनका विशेष सम्मान था । सत्य, अहिंसा, क्षमा, शील आदि नैतिक गुणों पर पद्य रचना के साथ ही उन्होंने जैन धर्म के अनुरूप भक्तिकाव्य की भी मनोयोग से रचना की थी। उनके चिंतन में मानववाद पर बल रहता था, फलस्वरूप उनकी रचनाओं को पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त थी। इसी सन्दर्भ में उन्होंने मुख्यतः काव्य-प्रयोजन, काव्य-हेतु और काव्य-वर्ण्य पर तथा संक्षेप में काव्य-शिल्प और सहृदय के विषय में विचार व्यक्त किए हैं, जो भक्तिकालीन चिन्तन-परम्परा के सर्वथा अनुरूप है। आलोच्य कवि की तीन रचनाएँ, सुप्रसिद्ध हैं-नाटक समयसार, बनारसीविलास, अर्धकथानक 'नाटक समयसार स्वामी कुन्दकुन्दाचार्य की प्राकृत रचना 'समयपाद' के अन्दर कृत संस्कृत-रूपान्तर पर आधारित है। बनारसीविलास' में 'सूक्तमुक्तावली (सोमप्रभ सूरि के काव्य 'सिन्दूर प्रकर' का अनुवाद), 'अध्यात्म बत्तीसी', 'मोक्षपैड़ी', 'सिन्धु चतुर्दशी', 'नाममाला', 'कर्मछत्तीसी', 'सहस्रनाम', 'अष्टकगीत', 'वचनिका' आदि अड़तालीस कृतियाँ संकलित हैं। इनमें से काव्य-सिद्धान्तों का निरूपण विशेषतः 'नाटक समयसार ' में हुआ है । यह उल्लेखनीय है कि इस कृति की 'उत्थानिका' और ग्रन्थान्त के कुछ छन्द ही बनारसीदास द्वारा रचित हैं। काव्य-प्रयोजन बनारसीदास ने काव्य-रचना के प्रयोजनों पर सुसम्बद्ध रूप में विचाराभिव्यक्ति नहीं की है, तथापि उनके स्फुट विचारों का समन्वय करने पर यह कहा जा सकता है कि अध्यात्म मार्ग का प्रतिपादन करने के कारण उन्होंने मनोविकार-नाश और मोक्षलाभ को भक्तिकाव्य के सहज परिणाम कहा है और 'नाटक समयसार' तथा कर्मप्रकृतिविधान' नामक ग्रन्थों में सम्यक् ज्ञान से विभूषित एवं चरित्रबल-प्रेरक सामग्री के समावेश का उल्लेख इन शब्दों में किया है : ११२ Jain Education International (अ) ग्यानकला उपजी अब मोहि, कहाँ गुन नाटक आगम केरो । जासु प्रसाद सधै सिवमारग, वेगि मिटै भवबास बसेरो ॥ डॉ० सुरेशचन्द्र गुप्त (आ) मोल चलिबे को मौन करम को करे बोन जाके रस-मौन बुध लौन क्यों घुलत है। गुन को गरंथ निरगुन को सुगम पंथ, जाको जसु कहत सुरेश अकुलत है। याही के जु पच्छी ते उड़त ग्यान गगन में, याही के विपच्छी जगजाल में रुलत हैं । हाटक सौ विमल विराटक सौ विस्तार, नाटक सुनत हीये फाटक खुलत हैं । आचार्य For Private & Personal Use Only (नाटक समयसार उत्थानिक पृष्ठ १२) ( नाटक समयसार, उत्थानिका, पृष्ठ १६ ) श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ www.jainelibrary.org

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