Book Title: Jain Ahar Prakriya aur Adhunik Vigyan Author(s): Ranjankumar Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf View full book textPage 4
________________ विकृत पदार्थ बाहर निकलते हैं तथा बाहर की शुद्ध वायु भी शरीर के अंदर जाती है। इन प्रक्रियाओं से व्यक्ति या पशु स्वस्थ तथा प्रसन्न रहता है। यद्यपि यह प्रक्रिया उस रूप में आहार ग्रहण करने के समान नदी है जिस रूप में आहार ग्रहण करना समझा जाता है। लेकिन फिर भी इसे आहार का एक रूप तो माना ही जा सकता है। शीत, ग्रीष्म निष्क्रियता के समय मेंढक भी रोमाहार प्रक्रिया द्वारा ही आहार ग्रहण करता है। क्योंकि इस परिस्थिति में मेंढक त्वचा के द्वारा ही श्वसनादि की क्रिया संपन्न करता है। जैन ग्रंथों में यह स्पष्ट रुप से लिखा है कि रोमाहार त्वचा द्वारा होता है। वनस्पति भी रोमाहारी होते है। पौधों कि जडें रोमों की सहायता से भूमि से खनिज पदार्थों से युक्त जलीय घोल सोखते है और यही घोल पौधों की पत्तियों शाखाओं द्वारा शोषित गैसों से मिलते है। इन दोनों के परस्पर मिलने से ग्लूकोज, स्टार्च प्रोटीन जैसे जटिल तत्वों का निर्माण होता है और ये तत्त्व ही पौधों के शरीर (पत्तियाँ, शाखा तना आदि भागों) के निर्माण में सहायक होते है। ३. प्रक्षेपाहार-ग्रास या कौर रुप में जो आहार ग्रहण किया जाता है उसे प्रक्षेपाहार कहा जाता है। इसे कवलाहारके भी नाम से जाना जाता है। मनुष्य, पशु अपना आहार कवलाहार रुप में ही ग्रहण करते है। वैज्ञानिकों की भी मान्यता कवलाहार के संबंध में जैनाचार्यों के समान ही है। आहार ग्रहण करने की प्रक्रिया कि इस व्याख्या के पश्चात हमारे समक्ष यह प्रश्न उठ खडा होता है कि कौन से जीव को ओजाहारी माना जाए. किसे रोमाहारी या प्रक्षेपाहारी माना जाए। क्योंकि उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो गया है कि कोई जीव अगर ओजाहारी है तो वह रोमाहार प्रक्रिया द्वारा भी आहार ग्रहण कर रहा है। कोई एक अवस्था में मात्र ओज को ही आहार रुप में ले रहा है तो किसी अन्य अवस्था में वह रोमाहारी भी है और कभी-कभी प्रक्षेपाहारी भी! कहने का अर्थ यह है कि किस प्रकार हम यह स्पष्ट रुप से जान ले कि वह जीव मात्र ओजाहारी है, या रोमाहारी है या कवलाहारी है या तीनों में से किसी दो विधि से या तीनों ही विधि से आहार लेता है। इस समस्या का समाधान करते हुए सूत्तकृतांग नियुक्ति में लिखा गया है कि "सभी अपर्याप्त जीव ओजाहारी है। इसके अतिरिक्त जब तक औदारिक रुप में दृश्यमान शरीर उत्पन्न नहीं होता, तब तक तैजस और कार्मण शरीर तथा मिश्र शरीरों द्वारा भी 'ओज' को ही आहार रुप में ग्रहण किया जाता है। इसके साथ-साथ औदारिक शरीर की उत्पत्ति होने के बाद भी जब तक इन्द्रिय, प्राण, भाषा, मन की उत्पत्ति नहीं होती तब तक प्राणी ओजाहार विधि से ही आहार लेते है। अर्थात् पर्याप्त अवस्था पाने के पूर्व जीव ओजाहारी ही होता है। अपर्याप्त जीव जब पूर्ण विकसीत हो जाते है तो अपना आहार लोमाहार प्रक्रिया द्वारा भी लेते है। क्योंकि विकसित जीव की इन्द्रियाँ विकास की अवस्था को प्राप्त कर लेती है और अपनी कोई भी वस्तु हो तो गर्व होना सहज ही हैं किंतु यह सर्व नाश का कारण भी है। २८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6