Book Title: Jain Agamo me Samayik Author(s): Hastimal Acharya Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 7
________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. • २८५ ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि जब हेयोपादेय का ज्ञान कर त्याग करेगा तो उसका व्रत स्वतः प्रमाणित हो जायगा। (४) शब्द नय कहता है-उपयोग-पूर्वक यतनाशील तो अविरत सम्यग् दृष्टि और देश विरति भी हो सकता है, किन्तु उनके सामायिक नहीं होता, अतः ऐसा कहना चाहिए कि षट्काय के जीवों पर जो विधिपूर्वक विरति वाला हो, वह संयमी आत्मा सामायिक है। (५) शब्द नय को बात पर समभिरूढ़ कहता है—यह ठीक नहीं, ऐसे संयमी तो द्रमत्त-साधु भी हो सकते हैं, किन्तु वहाँ सामायिक नहीं है, इसलिए ऐसा कहो-त्रिगुप्तिगुप्त यतमान संयमी आत्मा ही सामायिक है। (६) एवभूत अपनी शुद्ध दृष्टि में इसे भी नहीं मानता, वह कहता है कि इस प्रकार अप्रमत्त-संयत आदि के भी सामायिक मानना होगा, जो ठीक नहीं, क्योंकि उनको कर्म का बंध होता है । अतः आत्म-प्रदेशों में स्थिरता नहीं है, इसलिए ऐसा कहो–सावद्ययोग से विरत, त्रिगुप्त, संयमी उपयोगपूर्वक यतनावान आत्मा ही सामायिक है। इस नय की दृष्टि से शैलेशीदशा प्राप्त आत्मा ही सामायिक है । क्योंकि आत्मा के प्रदेश वहीं सम्पूर्ण स्थिर रहते हैं। (१) नयगम नय कहता है-शिष्य को जब गुरु ने सामायिक की अनुमति प्रदान की, तब से ही वह सामायिक का कर्ता हो जाता है, क्योंकि कारण में कार्य का उपचार होता है। (२) संग्रह और व्यवहार कहते हैं-अनुमति प्रदान करने मात्र से नहीं, पर जब शिष्य गुरुदेव के चरणों में सामायिक के लिए बैठ गया, तब उसे कर्ता कहना चाहिए। (३) ऋजु कहता है-गुरु चरणों में बैठा हुआ भी जब सामायिक पाठ को पढ़ रहा है और उसके लिए क्रिया करता है, तब सामायिक का कर्ता कहना चाहिए। (४) किन्तु शब्दादि नय कहते हैं-जब सामायिक में उपयोगवान् है तब शब्द क्रिया नहीं करते हुए भी, सामायिक का कर्त्ता होता है, क्योंकि मनोज्ञ-परिणाम ही सामायिक है । इस प्रकार सामायिक और सामायिकबान् का विभिन्न दृष्टियों से स्वरूप समझ कर साधक को सावध योग से विरत होने का अभ्यास करना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 5 6 7 8