Book Title: Jain Agamo ki Prachinta Author(s): Padamchand Munot Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 4
________________ 148. ! . . . . . जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक महाविदेह क्षेत्र में तो काल सदैव एक समान "दुषम-सुषम' आरे जैसा ही बना रहता है, अत: वहाँ तीर्थकर सदैव विद्यमान रहते हैं, उनका कभी विच्छेद नहीं होता। अत: वहाँ आगम निरन्तर विद्यमान रहते हैं। भरत व ऐरावत में ऐसा नहीं है। यहाँ अवसर्पिणीकाल के अन्तिम तीर्थंकर (आगमकार) एवं आगे आने वाले उत्सर्पिणी काल के प्रथम तीर्थकर के मध्य कम से कम ८४ हजार वर्ष का अन्तराल रहता है जबकि उत्सर्पिणी काल के अन्तिम आगम प्रणेता एवं उससे अगले आने वाले अवसर्पिणी काल के प्रथम आगम प्रणेता (तीर्थकर) के बीच १८ कोटाकोटि सागरोपम का अन्तराल हो जाता है। स्पष्ट है कि महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा से आगम बिना किसी अन्तराल के अव्याबाध, निरन्तर, शाश्वत अनादि अनन्त है। आचार्य मलयगिरि के अभिमतानुसार गणधर तीर्थकर के सन्मुख यह जिज्ञासा व्यक्त करते हैं कि तत्त्व क्या है? तब उत्तर में उनकी जिज्ञासा निवारणार्थ तीर्थकर "उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा धुवेइ वा'' इस त्रिपदी का प्रवचन करते हैं। त्रिपदी के आधार पर ही गणधर को १४ पूर्वो का ज्ञान उनके पूर्वभव के संस्कार एवं गणधर लब्धि के कारण तुरन्त हो जाता है। इन पूर्वो के ज्ञान से ही प्रभु की अर्थरूप वाणी को वे सूत्रबद्ध कर जिन आगमों की रचना करते हैं, जो अंग प्रविष्ट के रूप में विश्रुत होते हैं। अंग प्रविष्ट आगम गणधर कृत हैं। श्रुत आगम के दो भेद हैं १. अंग प्रविष्ट और २. अंग बाह्य। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य पर चिन्तन करते हुए लिखा है कि अंग प्रविष्ट श्रुत वह है जो गणधरों द्वारा सूत्र रूप में बनाया गया हो, गणधरों के द्वारा जिज्ञासा प्रस्तुत करने पर तीर्थकर के द्वारा समाधान किया हुआ हो। अंग बाह्य श्रुत वह है जो स्थविर कृत हो। गणधर थेरकयं वा आएसा मक्क वागरणाओ वा। धुव चल विसेसओ वा अंगाणंगेसु नाणत्तं ।।-विशेषानश्यक भाष्य, गाथा 252 स्थविर के चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी ये दो भेद किये हैं, वे सूत्र एवं अर्थ की दृष्टि से अंग-साहित्य के पूर्ण ज्ञाता होते हैं। वे जो कुछ भी रचना करते हैं या कहते हैं उसमें किंचित् मात्र भी विरोध नहीं होता। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में यह मान्यता है कि गणधरकृत अंगप्रविष्ट साहित्य में द्वादशांगी का निरूपण किया गया है जिनके नाम हैं१. आचारांग २. सूत्रकृतांग ३. स्थानांग ४. समवायांग ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) ६. ज्ञाताधर्मकथा ७. उपासकदशा ८. अन्तकृत्दशा ९. अनुत्तरौपपातिक दशा १०. प्रश्नव्याकरण ११. विपाक सूत्र १२. दृष्टिवाट। दिगम्बर परायरा की दृष्टि से अंग-साहित्य विन्छिन् हो चुका है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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