Book Title: Jain Agamo ka Vyakhya Sahitya
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 2
________________ ५६४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड अथवा अन्य कोई भाषा । संग्रहणी भी व्याख्या का एक रूप है जिसमें ग्रन्थ के विषय का संक्षेप में परिचय दिया जाता है । वार्तमानिक शिक्षा प्रणाली में प्रचलित प्रेसी (Precis), समरी, नोट्स संग्रहणी के दूसरे नाम हैं। जैन आगमों पर नियुक्ति आदि सभी प्रकार के व्याख्यात्मक साहित्य का निर्माण हुआ है । नियुक्तियों में मूलग्रन्थ के प्रत्येक पद का व्याख्यान न किया जाकर विशेष रूप से पारिभाषिक शब्दों का व्याख्यान है। भाषा प्राकृत और रचना पद्यात्मक है। नियुक्तियों की व्याख्या शैली गूढ़ और संक्षिप्त है जिससे किसी विषय का जितने विस्तार से विचार होना चाहिये उसका उनमें अभाव है । इनकी अनेक बातें उसके पश्चात् के व्याख्या ग्रन्थों से समझ में आती हैं । अतः इन नियुक्तिगत गूढार्थों को प्रकट रूप में प्रस्तुत करने के लिए उत्तरकाल में जो पद्यात्मक विस्तृत व्याख्यायें की गई वे भाष्य के रूप में प्रसिद्ध हुई। भाष्यों में नियुक्तियों के गूढ़ अर्थ की अभिव्यक्ति के साथ-साथ यत्किचित् मूल ग्रन्थगत भावों को प्रकट किया गया है। फिर भी भाष्यों के पद्यात्मक होने से उनमें भावों का प्रकाशन पूर्णरूप से नहीं हो सका । अभिव्यंजना के लिए उनको भी क्षेत्र सीमित है । इसीलिए उन पद्यात्मक व्याख्याओं को व्यापक रूप देने व ग्रन्थगत भावों को विशेष रूप में स्फुट करने की आवश्यकता हुई तब उत्तरवर्ती काल में गद्यात्मक व्याख्यायें प्राकृत अथवा संस्कृतमिश्रित प्राकृत में लिखी गई । व्याख्या का नवीन रूप होने से यह विद्या चूणि के नाम से प्रसिद्ध हुई। चूणि तक के व्याख्या साहित्य का रूप प्राकृत और संस्कृत मिश्रित प्राकृत रहा और मौलिक ग्रन्थ के भावों की स्फुट व्याख्या होने पर भी युगानुरूपता को लक्ष्य में रख कर विद्वद् भोग्य शुद्ध संस्कृत भाषा में व्याख्याएँ की गईं, वे टीका के नाम से विख्यात हुईं। इस प्रकार हम देखते हैं कि नियुक्ति से प्रारम्भ हुआ व्याख्या का रूप क्रमशः विकासोन्मुख होकर व्यापक बनता गया, जिसके फलस्वरूप जैन साहित्य की भी वृद्धि हुई । समान्य विद्वानों ने उसकी गरिमा को परखा एवं सामान्य जन अध्ययन पठन-पाठन की सुविधा प्राप्त कर सका, ग्रन्थ की विशेषता को सरलता से समझ सका । . प्रायः सभी आगमों पर व्याख्या ग्रन्थ लिखे गये हैं लेकिन उनमें भी कल्पसूत्र और आवश्यकसूत्र की टीकाओं की सूची काफी लम्बी है । इसका कारण यह है कि पर्युषण पर्व में कल्पसूत्र के वांचन का विशेष प्रचार होने और आवश्यकसूत्र का साधुचर्या से सम्बन्ध होने के कारण टीकायें अधिक रची गई । कतिपय प्रमुख व्याख्याकार प्रायः प्रत्येक आगम की व्याख्या हुई है। अत: यह जानने की सहज जिज्ञासा होती है कि उन व्याख्याता विद्वान आचार्यों के नाम क्या हैं जिन्होंने साहित्य कोश की श्रीवृद्धि में अपना योगदान दिया है ? संक्षेप में उनका परिचय इस प्रकार हैनियुक्तिकार आगमिक व्याख्या में नियुक्ति का प्रथम स्थान है । विशेष पारिभाषिक शब्दों के विवेचन, विश्लेषण करने को नियुक्ति कहते हैं । व्याख्यात्मक साहित्य लिखने की प्राचीन परम्परा में इस विधा का अधिक उपयोग हुआ है। वैदिक पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करने के लिए महर्षि यास्क ने निघण्टु भाष्यरूप निरुक्त लिखा है। नियुक्तियों की व्याख्यान शैली निक्षेप-पद्धतिरूप है। इस पद्धति में किसी भी पद के अनेक सम्भावित अर्थ करके उनमें से अप्रस्तुत अर्थ का निराकरण कर प्रस्तुत अर्थ को ग्रहण किया जाता है । जैन न्यायशास्त्र में इस पद्धति का विशेष महत्व है । नियुक्तिकार भद्रबाहु ने नियुक्ति का प्रयोजन बताते हुए इस पद्धति को सर्वाधिक उपयुक्त बताया है । उन्होंने आवश्यकनियुक्ति (गाथा ८८) में स्पष्ट किया है कि प्रत्येक शब्द अनेकार्थक होता है, उसमें से यथाप्रसंग कौन-सा अर्थ उपयुक्त है और भगवान महावीर के उपदेश के समय कौनसा अर्थ किस शब्द से सम्बद्ध रहा आदि बातों पर दृष्टि रखते हुए सम्यकप से अर्थ-निर्णय करना और उसका मूल रूप के शब्दों के साथ सम्बन्ध जोड़ना नियुक्ति का प्रयोजन है। नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) चतुर्दश पूर्वधर आर्य भद्रबाहु से भिन्न हैं और प्रसिद्ध ज्योतिर्विद् वराहमिहिर के सहोदर माने जाते हैं एवं अष्टांग निमित्त व मंत्रविद्या में पारंगत नैमित्तिक भद्रबाहु के रूप में प्रसिद्ध हैं । वराहमिहिर वि० सं० ५६२ में विद्यमान थे। अतः इनका समय भी यही मानना चाहिए । आगम प्रभावक पुण्यविजयजी महाराज तथा प्रसिद्ध साहित्य मनीषी देवेन्द्र मुनिजी शास्त्री का मानना है कि नियुक्तियों की परम्परा बहुत ही प्राचीन है। प्रथम भद्रबाहु ने भी नियुक्तियां लिखीं और जो रूप वर्तमान में नियुक्तियों का मिलता है वह रूप द्वितीय भद्रबाहु तक स्थिर हुआ था, इसमें अनेक गाथाएँ प्रथम भद्रबाहु के समय की भी हैं। ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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