Book Title: Jain Agam Sahitya
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf

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Page 4
________________ श्वेताम्बर मान्यताके अनुसार तीव्र गतिसे ह्रासकी ओर बहती श्रुतस्रोतस्विनीको समय-समय पर होनेवाली आगम-वाचनाओंके माध्यमसे बचा लिया गया। फलतः नाना परिवर्तनोंके बावजूद भी वर्तमानमें उपलब्ध श्रुतांशकी मौलिकता असंदिध है। इसी विश्वासके आधार पर श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा ४५ आगम-सूत्रोंको प्रमाणभूत मानती है तथा स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराएँ ३२ सूत्रों को। प्रकीर्णकोंके अतिरिक्त ३२ सूत्रोंकी प्रामाणिकतामें तीनों ही परम्पराएँ एक मत हैं। प्रस्तुत निबन्धके माध्यमसे हमें श्वेताम्बर-परम्परा सम्मत इन्हीं ३२ आगम ग्रन्थोंको आधार मानकर कुछ चर्चा करनी है । मैं एक-एक आगम-ग्रन्थका औपचारिक परिचय देनेका प्रयत्न न कर सीधे तथ्योंके प्रांगणमें उतर जाना चाहती हूँ। ताकि हम आगम-साहित्यकी प्रदेय-भूमिकाओं पर समग्रतासे विचार कर सकें। आगमोंकी भाषा दूसरोंके साथ सम्पर्क स्थापित करनेका सशक्त माध्यम है भाषा । भाषाका प्रयोजन है, अपने भीतरके जगत्को दूसरोंके भीतरी जगत्में उतार देना। इस दृष्टिसे भाषा एक उपयोगिता है। किन्तु उस समय भाषा मात्र उपयोगिता न रहकर अलङ्करण और बड़प्पनका मानदण्ड बन गई। विद्वान् लोग उस संस्कृत भाषामें बोलने लगे, जो जनसाधारणके लिए अगम भाषा थी। - महावीरका लक्ष्य था-सबको जगाना। सबको जगानेके लिए सबके साथ सम्पर्क साधना आवश्यक होता है । मात्र आभिजात्य भाषा या पण्डितोंकी भाषा जन-सामान्यके साथ सम्पर्क स्थापित करनेमें सहयोगी नहीं बन सकती। अतः महावीरने जन भाषाको ही जन-सम्पर्कका माध्यम बनाया। वह थी उस समयकी लोक भाषा-प्राकृत । वह भाषा मगधके आधे भागमें बोली जाती थी, अतः वह अर्द्ध मागाधी भी कहलाती थी । अर्धमागधी उस समयकी प्रतिष्ठित भाषा थी। वह आर्य-भाषा मानी जाती थी। उस भाषाका प्रयोग करनेवाले भाषा-आर्य कहलाते थे । प्राकृतका अर्थ है-प्रकृति-जनताकी भाषा। भगवान् महावीर जनताके लिए, जनताकी भाषामें बोले थे, अतः वे जनताके बन गए। प्राकृत भाषामें निबद्ध होते हुए भी जैन आगम साहित्यको भाषाकी दृष्टिसे दो युगोंमें बाँट सकते हैं । ई० पू० ४०० से ई० १०० तकका पहला युग है। इसमें रचित अङ्गोंकी भाषा अर्ध-मागधी है । दूसरा युग ई० १०० से ई० ५०० तकका है । इसमें रचित या नियूढ़ आगमोंको भाषा जैन-महाराष्ट्री प्राकृत है। वैसे समकालीन ग्रन्थोंकी प्राकृत भाषामें भी परस्पर पर्याप्त भिन्नता है। जैसे सूत्रकृतांगकी भाषा दूसरे ग्रन्थोंकी भाषासे भिन्न ही पड़ जाती है। उसमें ऐसे अनेक शब्द प्रयुक्त हुए हैं, जो व्याकरणके नियमोंसे सिद्ध नहीं होते। इससे सूत्रकृतांगकी प्राचीनता सिद्ध होती है। आचारांग प्रथम और द्वितीयकी भाषाका प्रवाह तो एकदम बदल गया है । शैली आगम ग्रन्थोंमें गद्य, पद्य और चम्पू-इन तीनों ही शैलियोंका प्रयोग हुआ है। आचारांग (प्रथम) चम्पू-शैलीका उत्कृष्ट उदाहरण है। फिर भी किसी ग्रन्थमें आदिसे लेकर अन्त तक एक ही शैलीका निर्वाह १. समवाओ, ३४.१ भगनं चणं अद्धमागदीए भासाए धम्म माइक्खइ। २. पन्नवणा ११६२ भासारिया जे णं अद्धमागहाए भासाए भासंति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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