Book Title: Jain Adhyatma
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 4
________________ ३५६ : डाँ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ तथा अनुकूल निमित्त मिल जायगा उसके बाद वैसा परिणमन हो जायगा । अतः नियतत्व और अनियतत्व दोनों धर्म सापेक्ष हैं । अपेक्षाभेदसे सम्भव हैं । नियतिवाद नहीं जो होना होगा वह होगा ही, हमारा कुछ भी पुरुषार्थ नहीं है, इस तरहके निष्क्रिय नियतिवादके विचार जैनतत्त्वस्थितिके प्रतिकूल हैं । जो द्रव्यगत शक्तियाँ नियत हैं उनमें हमारा कोई पुरुषार्थं नहीं, हमारा पुरुषार्थं तो कोयलेकी हीरापर्यायके विकास कराने में है । यदि कोयले के लिए उसकी हीरापर्यायके विकासके लिए आवश्यक सामग्री न मिले तो या तो वह जलकर भस्म बनेगा या फिर खानिमें ही पड़े-पड़े समाप्त हो जायगा । इसका यह अर्थ नहीं है कि जिसमें उपादान शक्ति नहीं है उसका परिणमन भी निमित्तसे हो सकता है या निमित्त में यह शक्ति है जो निरुपादानको परिणमन करा सके । उभय कारणों से कार्य कार्योत्पत्ति के लिए दोनों ही कारण चाहिए उपादान और निमित्त; जैसा कि स्वामी समन्तभद्रने कहा है कि " यथा कार्यं बहिरन्तरुपाधिभिः " अर्थात् कार्य बाह्य आभ्यन्तर दोनों कारणोंसे होता है । यही अनाद्यनन्त वैज्ञानिक कारण- कार्यधारा ही द्रव्य है जिसमें पूर्वपर्याय अपनी सामग्री के अनुसार सदृश, विसदृश, अर्धसदृश, अल्पसदृश आदिरूपसे अनेक पर्यायोंकी उत्पादक होती है । मान लीजिए एक जलबिन्दु है उसकी पर्याय बदल रही है, वह प्रतिक्षण जलबिन्दु रूपसे परिणमन कर रही है पर यदि गरमीका निमित्त मिलता है तो तुरन्त भाप बन जाती है। किसी मिट्टीमें यदि पड़ गई तो सम्भव है पृथिवी बन जाय । यदि साँपके मुँहमें चली गई जहर बन जायगी । तात्पर्य यह कि एकधारा पूर्व उत्तर पर्यायोंको बहती है उसमें जैसे-जैसे संयोग होते जायेंगे उसका उस जाति में परिणमन हो जायगा । गङ्गाकी धारा हरिद्वारमें जो है वह कानपुरमें नहीं और कानपुरकी गटर आदिका संयोग पाकर इलाहाबाद में बदली और इलाहाबादकी गन्दगी आदि कारण काशीकी गङ्गा जुदी ही हो जाती है । यहाँ यह कहना कि "गङ्गाके जलके प्रत्येक परमाणुका प्रतिसमयका सुनिश्चित कार्यक्रम बना हुआ है उसका जिस समय परिणमन होना है वह होकर ही रहेगा" द्रव्यकी विज्ञान-सम्मत कार्यकारणपरम्पराके प्रतिकूल है । 'जं जस्स जम्मि' आदि भावनाएँ हैं स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामें सम्यग्दृष्टि के चिन्तनमें ये दो गाथाएँ लिखी हैंजं जस्स जम्मि देसे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि | णादं जिणेण णियदं जम्मं व अहव मरणं वा ।। ३२१ ॥ तं तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि | को चालेदु सक्को इंदो वा अह जिणि वा ॥ ३२२ ॥ अर्थात् जिसका जिस समय जहाँ जैसे जन्म या मरण होना है उसे इन्द्र या जिनेन्द्र कोई भी नहीं टाल सकता, वह होगा ही । इन गाथाओंका भावनीयार्थ यही है कि जो जब होना है, होगा, उसमें कोई किसीका शरण नहीं है। आत्मनिर्भर रहकर जो आवे वह सहना चाहिए । इस तरह चित्त समाधान के लिए भाई जानेवाली भावनाओंसे वस्तुव्यवस्था नहीं हो सकती । अनित्यभावनामें ही कहते हैं कि जगत् स्वप्नवत् है इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि शून्यवादियोंकी तरह जगत् पदार्थोंकी सत्तासे शून्य है बल्कि यही उसका तात्पर्य है कि स्वप्नकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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