Book Title: Jain Achar aur Samhita
Author(s): Sudha Jain
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 5
________________ यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार का आवश्यकताभर उपयोग करना परिग्रह परिमाण-व्रत है।३३ से लगने वाला दोष तिर्यकपरिमाणअतिक्रमण कहलाता है। इस व्रत के भी पाँच अतिचार बताए गए हैं, जिनसे श्रावक (घ) क्षेत्रवद्धि- मनमाने ढंग से क्षेत्र की मर्यादा को बढ़ा लेना साधकों को बचना चाहिए।३४ क्षेत्रवृद्धि अतिचार है। (क) क्षेत्रवस्तु-परिमाण-अतिक्रमण - मकानों, दुकानों (ङ) स्मृत्यन्तर्धा - सीमा का स्मरण न रहने पर लगने वाला तथा खेतों की मर्यादा को किसी भी बहाने से बढ़ाना। दोष स्मृत्यन्तर्धा अतिचार कहलाता है। (ख) हिरण्य-सुवर्ण-परिमाण-अतिक्रमण - सोने-चाँदी २. अनर्थदण्डव्रत - बिना किसी प्रयोजन के हिंसा करना आदि के परिमाण को भंग करना। अनर्थदण्ड कहलाता है और हिंसापूर्ण व्यापार-व्यवसाय के (ग) धन-धान्य-परिमाण-अतिक्रमण - मुद्रा, जवाहरात अतिरिक्त समस्त पापपूर्ण प्रवृत्तियों से निवृत्त होना अनर्थदण्ड आदि की मर्यादा को भंग करना। विरमण व्रत है। इस व्रत में पापपूर्ण प्रवृत्तियों का त्याग किया (घ) द्विपद-चतुष्पद-परिमाण-अतिक्रमण - दास-दासी, जाता है। जैसे - नौकर, कर्मचारी आदि के परिमाण का उल्लंघन करना। (क) अपध्यान - आर्तध्यान और रौद्रध्यान का त्याग, क्योंकि (ङ) कव्य-परिमाण-अतिक्रमण - दैनिक व्यवहार में इससे श्रावक के अंदर अशुभ चिन्तन की क्रिया होती रहती है। आने वाली वस्त्र, पात्र, आसन आदि वस्तुओं के लिए परिमाण (ख) प्रमादाचरण - आलस्य का सेवन करना प्रमादाचरण का उल्लंघन करना। है। प्रमादाचरण वाले व्यक्ति की शुभ में प्रवृत्ति नहीं होती, यदि गुणव्रत - अणुव्रतों की रक्षा एवं विकास के लिए जैनाचार होती भी है, तो असावधानी पूर्वक करता है। में गुणव्रतों की व्यवस्था की गई है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं (ग) हिंसादान - व्यक्ति अथवा राष्ट्र को हिंसक शस्त्र आदि कि अणुव्रतों की भावनाओं की दृढ़ता के लिए जिन विशेष गुणों देकर हिंसा की संभावना को बढ़ावा देना भी अनर्थदण्ड है। की आवश्यकता होती है, उन्हें गुणव्रत कहा जाता है। धर्मामृत (घ) पापकर्मोपदेश - जिस उपदेश के सनने से व्यक्ति पाप (सागर) में इसके तीन भेद बताए गए है - दिव्रत, अनर्थदण्ड कर्म में प्रवत्त हो, वैसा उपदेश देना पापकर्मोपदेश कहलाता है। और भोगोपभोग परिमाणव्रत।३५ अहिंसादि व्रतों के सम्यक् पालन के लिए तथा आत्मविशुद्धि १. दिग्बत - जिस व्रत में उसके द्वारा दिशाओं की भी के लिए अनर्थदण्ड का त्याग करना चाहिए। यह त्यागरूपव्रत सीमा निर्धारित की जाती है, उसे दिग्व्रत कहते हैं। अनंत ही अनर्थदण्ड व्रत है। इसके भी पाँच अतिचार बताए गए हैं - इच्छाओं की त्यागवृत्ति के द्वारा मर्यादा निश्चित करना दिग्व्रत है। इसलिए इसे दिशापरिमाण के नाम से भी जाना जाता है। इसके (क) संयुक्ताधिकरण - जिन उपकरणों के संयोग से हिंसा भी पाँच अतिचार हैं की संभावना बढ़ जाती है, उन्हें संयुक्त रखना संयुक्ताधिकरण अतिचार कहलाता है। (क) उर्ध्वदिशा-परिमाण-अतिक्रमण - ऊँची दिशा के (ख) उपभोग परिभोगातिरिक्त - आवश्यकता से अधिक निश्चित परिमाण का उल्लंघन करने पर लगने वाले दोष का उपभोग एवं परिभोग की सामग्री संग्रह रखना नाम उर्ध्वदिशा परिमाण अतिक्रमण है। उपभोगपरिभोगातिरिक्त अतिचार है। (ख) अधोदिशा परिमाण अतिक्रमण - नीचे की दिशा के परिमाण का उल्लंघन करने पर लगने वाला दोष अधोदिशा । (ग) मौखर्य - असम्बद्ध एवं अनावश्यक वचन बोलना मौखर्य परिमाण-अतिक्रमण-कहलाता है। (ग) तिर्यकदिशा-परिमाण-अतिक्रमण - उत्तर-दक्षिण, पूर्व (घ) कौत्कुच्य - विकारवर्धक चेष्टाएँ करना या देखना कौत्कुच्य पश्चिम तथा उनके कोणों में गमनागमन की मर्यादा के उल्लंघन mirmirarianardandramodiditoriindiadrirandy Hardwarendraritasardastiriraniraniranitariamiraram Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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