Book Title: Isibhasiyai ke kuch Adhyayano ka Bhashastriya Vishleshan Author(s): Dinanath Sharma Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf View full book textPage 2
________________ ६१% ६०% নানা হাসা कुछ अन्य अध्ययनों में ध्वनि परिवर्तन की स्थितिनारद वज्जिपुत्त दविल पुप्फसाल अध्याय यथावत् ६९% घोष १२% ७% २२% ४% लोप २७% ११% १८% इन सबका औसत निकाला जाय तो यथावत् स्थिति ६० प्रतिशत और लोप की स्थिति लगभग २५ प्रतिशत रहती है। इसिभासियाई सूत्र का सम्पादन परमादरणीय जर्मन विद्वान् डॉ० शुब्रिग महोदय के द्वारा किया गया है उसी ग्रंथ के पाठों का यह भाषाकीय अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का सम्पादन भी श्री शुब्रिग महोदय के हाथों से ही किया गया है, परन्तु उसकी प्राकृत भाषा का स्वरूप ध्वनि परिवर्तन की दृष्टि से बिलकुल विपरीत सा लगता है। आचारांग में लोप ५५ से ६० प्रतिशत है और यथावत् स्थिति २५से३० प्रतिशत । भाषा के इस स्वरूप को देखते हुए आचारांग का संकलन इसिभासियाई के बाद में हुआ होगाऐसा प्रतीत हुए बिना नहीं रहता। शुब्रिग महोदय का आचारांग का संस्करण १९१४ई० का है जबकि उनका ही इसिभासियाई का संस्करण १९४२ ई० (१९७४, अहमदाबाद) का है। अब प्रश्न यह होता है कि यदि इसिभासियाइं प्राचीन है तब तो ध्वनि परिवर्तन की यह स्थिति उचित मालूम होती है परन्तु यदि इसिभासियाई आचारांग से बाद का है तो समाधान कैसे किया जाय ? क्या वर्षों के अनुभव के बाद शुब्रिग महोदय को ऐसा लगा कि यदि प्राचीन ग्रन्थों की हस्तप्रतों में मध्यवर्ती व्यंजन यथावत् मिलते हों तो उन्हें वैसे ही रखाजाय। क्योंकि आचारांग में उन्होंने मध्यवर्ती व्यंजनों का लगभग सर्वथा लोप कर दिया है। जबकि प्रतों में मध्यवर्ती व्यंजनों की स्थिति अनेक बार यथावत् हो रही है। सबसे अधिक लोप तो मध्यवर्ती 'त' का कर दिया गया है। हो सकता है कि 'त' श्रुति की जो भ्रामक धारणा चल पड़ी थी, उससे वे प्रभावित हुए हों। क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता तो इसिभासियाइं के सम्पादन में यही सिद्धान्त लागू किया होता, परन्तु उसमें मध्यवर्ती 'त' की स्थिति कुछ और ही है। मध्यवर्ती 'त' की स्थिति उपरोक्त चार अध्ययनों (१,२,३,५,) में मध्यवर्ती 'त' की स्थिति निम्नवत् पायी जातीहै : अध्याय यथावत् घोष लोप ०% ३२% १००% ०% ०% ८५% २% ( भविदव्वं ) १३% ०% २८% जबकि आचारांग (प्रथम श्रुतस्कन्ध ) में मध्यवर्ती 'त' का प्रायः सर्वथा लोप कर दिया गया है। आचारांग की उपलब्ध प्रतों और चूणि में कितने ही शब्दों में मध्यवर्ती 'त' की जो यथावत् स्थिति मिलती है उसे हमने 'त' श्रुति मानकर उसका लोप कर दिया, जबकि इसिंभासियाइं में यह नियम नहीं लगाया गया है । ऐसा क्यों? ६८% ३ ७२०% Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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